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रामायण चौपाई | रामचरितमानस दोहा 21-40 | रामायण चौपाई अर्थ सहित | बालकाण्ड चौपाई

रामायण बालकाण्ड चौपाई अर्थ सहित दोहा 21–40

Ramcharitmanas, Baalkand Arth sahit, Doha 21-40


 दोहा-

राम नाम मनिदीप धरु जीह देहरीं द्वार।

तुलसी भीतर बाहेरहुँ जौं चाहसि उजिआर।।21।।

 

नाम जीहँ जपि जागहिं जोगी।

बिरति बिरंचि प्रपंच बियोगी।।

ब्रह्मसुखहि अनुभवहिं अनूपा।

अकथ अनामय नाम रूपा।।

 

जाना चहहिं गूढ़ जेऊ।

नाम जीहँ जपि जानहिं तेऊ।।

साधक नाम जपहिं लय लाएँ।

होहिं सिद्ध अनिमादिक पाएँ।।

 

जपहिं नामु जन आरत भारी।

मिटहिं कुसंकट होहिं सुखारी।।

राम भगत जग चारि प्रकारा।

सुकृती चारिउ अनघ उदारा।।

 

चहू चतुर कहुँ नाम अधारा।

ग्यानी प्रभुहि बिसेषि पिआरा।।

चहुँ जुग चहुँ श्रुति नाम प्रभाऊ।

कलि बिसेषि नहिं आन उपाऊ।।

 

दोहा-

सकल कामना हीन जे राम भगति रस लीन।

नाम सुप्रेम पियूष ह्रद तिन्हहुँ किए मन मीन।।22।।

 

अगुन सगुन दुइ ब्रह्म सरूपा।

अकथ अगाध अनादि अनूपा।।

मोरें मत बड़ नामु दुहू तें।

किए जेहिं जुग निज बस निज बूतें।।

 

प्रौढ़ि सुजन जनि जानहिं जन की।

कहउँ प्रतीति प्रीति रुचि मन की।।

एकु दारुगत देखिअ एकू।

पावक सम जुग ब्रह्म बिबेकू।।

 

उभय अगम जुग सुगम नाम तें।

कहेउँ नामु बड़ ब्रह्म राम तें।।

ब्यापकु एकु ब्रह्म अबिनासी।

सत चेतन घन आनँद रासी।।

 

अस प्रभु हृदयँ अछत अबिकारी।

सकल जीव जग दीन दुखारी।।

नाम निरूपन नाम जतन तें।

सोउ प्रगटत जिमि मोल रतन तें।।

 

दोहा-

निरगुन तें एहि भाँति बड़ नाम प्रभाउ अपार।

कहउँ नामु बड़ राम तें निज बिचार अनुसार।।23।।

 

राम भगत हित नर तनु धारी।

सहि संकट किए साधु सुखारी।।

नामु सप्रेम जपत अनयासा।

भगत होहिं मुद मंगल बासा।।

 

राम एक तापस तिय तारी।

नाम कोटि खल कुमति सुधारी।।

रिषि हित राम सुकेतुसुता की।

सहित सेन सुत कीन्हि बिबाकी।।

 

सहित दोष दुख दास दुरासा।

दलइ नामु जिमि रबि निसि नासा।।

भंजेउ राम आपु भव चापू।

भव भय भंजन नाम प्रतापू।।

 

दंडक बनु प्रभु कीन्ह सुहावन।

जन मन अमित नाम किए पावन।।

निसिचर निकल दले रघुनंदन।

नामु सकल कलि कलुष निकंदन।।

 

दोहा-

सबरी गीध सुसेवकनि सुगति दीन्हि रघुनाथ।

नाम उधारे अमित खल बेद बिदित गुन गाथ।।24।।

 

राम सुकंठ बिभीषन दोऊ।

राखे सरन जान सबु कोऊ।।

नाम गरीब अनेक नेवाजे।

लोक बेद बर बिरिद बिराजे।।

 

राम भालु कपि कटकु बटोरा।

सेतु हेतु श्रमु कीन्ह थोरा।।

नामु लेत भवसिंधु सुखाहीं।

करहु बिचारु सुजन मन माहीं।।

 

राम सकुल रन रावनु मारा।

सीय सहित निज पुर पुर पगु धारा।।

राजा रामु अवध रजधानी।

गावत गुन सुर मुनि बर बानी।।

 

सेवक सुमिरत नामु सप्रीती।

बिनु श्रम प्रबल मोह दलु जीती।।

फिरत सनेहँ मगन सुख अपनें।

नाम प्रसाद सोच नहिं सपनें।।

 

दोहा-

ब्रह्म रात में नामु बड़ बर दायक बर दानि।

रामचरित सत कोटि महँ लिय महेस जियँ जानि।।25।।

 

मासपरायण - पहला विश्राम

 

नाम प्रसाद संभु अबिनासी।

साजु अमंगल मंगल रासी।।

सुक सनकादि सिद्ध मुनि जोगी।

नाम प्रसादद ब्रह्मसुख भोगी।।

 

नारद जानेउ नाम प्रतापू।

जग प्रिय हरि हरि हर प्रिय आपू।।

नामु जपत प्रभु कीन्ह प्रसादू।

भगत सिरोमनि भे प्रहलादू।।

 

ध्रुवँ सगलानि जपेउ हरि नाउँ।

पायउ अचल अनूपम ठाऊँ।।

सुमिरि पवनसुत पावन नामू।

अपने बस करि राखे रामू।।

 

अपतु अजामिलु गजु गनिकाऊ।

भए मुकुत हरि नाम प्रभाऊ।।

कहौं कहाँ लगि नाम बड़ाई।

रामु सकहिं नाम गुन गाई।।

 

दोहा-

नामु राम को कलपतरु कलि कल्यान निवासु।

जो सुमिरत भयो भाँग तें तुलसी तुलसीदासु।।26।।

 

चहुँ जुग तीनि काल तिहुँ लोका।

भए नाम जपि जीव बिसोका।।

बेद पुरान संत मत एहू।

सकल सुकृत फल राम सनेहू।।

 

ध्यानु प्रथम जुग मख बिधि दूजें।

द्वापर परितोषत प्रभु पूजें।।

कलि केवल मल मूल मलीना।

पाप पयोनिधि जन मन मीना।।

 

नाम कामतरु काल कराला।

सुमिरत समन सकल जग जाला।।

राम नाम कलि अभिमत दाता।

हित परलोक लोक पितु माता।।

 

नहिं कलि करम भगति बिबेकू।

राम नाम अवलंबन एकू।।

कालनेमि कलि कपट निधानू।

नाम सुमति समरथ हनुमानू।।

 

दोहा-

राम नाम नरकेसरी कनककसिपु कलिकाल।

जापक जन प्रहलाद जिमि पालिहि दलि सुरसाल।।27।।

 

भायँ कुभायँ अनख आलसहूँ।

नाम जपत मंगल दिसि दसहूँ।।

सुमिरि सो नाम राम गुन गाथा।

करउँ नाइ रघुनाथहि माथा।।

 

मोरि सुधारिहि सो सब भाँती।

जासु कृपा नहिं कृपाँ अघाती।।

राम सुस्वामि कुसेवकु मोसो।

निज दिसि देखि दयानिधि पोसो।।

 

लोकहुँ बेद सुसाहिब रीति।

बिनय सुनत पहिचानत प्रीती।।

गनी गरीब ग्राम नागर।

पंडित मूढ़ मलीन उजागर।।

 

सुकबि कुकबि निज मति अनुहारी।

नृपहि सराहत सब नर नारी।।

साधु सुजान सुसील नृपाला।

ईस अंस भव परम कृपाला।।

 

सुनि सनमानहिं सबहि सुबानी।

भनिति भगति नति गति पहिचानी।।

यह प्राकृत महिपाल सुभाऊ।

जान सिरोमनि कोसलराऊ।।

 

रीझत राम सनेह निसोतें।

को जग मंद मलिनमति मोतें।।

 

दोहा-

सठ सेवक की प्रीति रुचि रखिहहिं राम कृपालु।

उपल किए जलजान जेहिं सचिव सुमति कपि भालु।।

।।28()।।

 

हौंहु कहावत सबु कहत राम सहत उपहास।

साहिब सीतानाथ सो सेवक तुलसीदास।।

।।28()।।

 

अति बड़ि मोरि ढिठाई खोरी।

सुनि अघ नरकहुँ नाक सकोरी।।

समुझि सहम मोहि अपडर अपनें।

सो सुधि राम कीन्हि नहिं सपनें।।

 

सुनि अवलोकि सुचित चख चाही।

भगति मोरि मति स्वामि सराही।।

कहत नसाइ होइ हियँ नीकी।

रीझत राम जानि जन जी की।।

 

रहति प्रभु चित चूक किए की।

करत सुरति सय बार हिए की।।

जेहिं अघ बधेउ ब्याध जिमि बाली।

फिरि सुकंठ सोइ कीन्हि कुचाली।।

 

सोइ करतूति बिभीषन केरी।

सपनेहुँ सो राम हियँ हेरी।।

ते भरतहि भेंटत सनमाने।

राजसभाँ रघुबीर बखाने।।

 

दोहा-

प्रभु तरु तर कपि डार पर ते किए आपु समान।

तुलसी कहूँ राम से साहिब सीलनिधान।।29()।।

 

राम निकाईं रावरी है सबकी को नीक।

जौं यह साँची है सदा तौ नीको तुलसीक।।29()।।

 

एहि बिधि निज गुन दोष कहि सबहि बहुरि सिरु नाइ।

बरनउँ रघुबर बिसद जसु सुनि कलि कलुष नसाइ।।29()।।

 

जागबलिक जो कथा सुहाई।

भरद्वाज मुनिबरहि सुनाई।।

कहिहउँ सोइ संबाद बखानी।

सुनहुँ सकल सज्जन सुखु मानी।।

 

संभु कीन्ह यह चरित सुहावा।

बहुरि कृपा करि उमहि सुनावा।।

सोइ सिव कागभुसंुडिहि दीन्हा।

राम भगत अधिकारी चीन्हा।।

 

तेहि सन जागबलिक पुनि पावा।

तिन्ह पुनि भरद्वाज प्रति गावा।।

ते श्रोता बकता समसीला।

सवँदरसी जानहिं हरिलीला।।

 

जानहिं तीनि काल जिन ग्याना।

करतल गत आमलक समाना।।

औरउ जे हरिभगत सुजाना।

कहहिं सुनहिं समुझहिं बिधि नाना।।

 

दोहा-

मैं पुनि निज गुर सन सुनी कथा सो सूकरखेत।

समुझी नहिं तसि बालपन तब अति रहेउँ अचेत।।30()।।

 

श्रोता बकता ग्याननिधि कथा राम कै गूढ़।

किमि समुझौं मैं जीव जड़ कलि मल ग्रसित बिमूढ़।।30()।।

 

तदपि कही गुर बारहिं बारा।

समुझि परी कछु मति अनुसारा।।

भाषाबद्ध करबि मैं सोई।

मोरें मन प्रबोध जेहिं होई।।

 

जस कछु बुधि बिबेक बल मेरें।

तस कहिहउँ हियँ हरि के प्रेरें।।

निज संदेह मोह भ्रम हरनी।

करउँ कथा भव सरिता तरनी।।

 

बुध बिश्राम सकल जन रंजनि।

रामकथा कलि कलुष बिभंजनि।

रामकथा कलि पंनग भरनी।

पुनि बिबेक पावक कहुँ अरनी।।

 

रामकथा कलि कामद गाई।

सुजन सजीवनि मूरि सुहाई।।

सोइ बसुधातल सुधा तरंगिनि।

भय भंजनि भ्रम भेक भुअंगिनि।।

 

असुर सेन सम नरक निकंदिनि।

साधु बिबुध कुल हित गिरिनंदिनि।।

संत समाज पयोधि रमा सी।

बिस्व भार भर अचल छमा सी।।

 

जम गन मुहँ मसि जग जमुना सी।

जीवन मुकुति हेतु जनु कासी।।

रामहि प्रिय पावनि तुलसी सी।

तुलसिदास हित हियँ हुलसी सी।।

 

सिवप्रिय मेकल सैल सुता सी।

सकल सिद्धि सुख संपति रासी।।

सदगुन सुरगन अंब अदिति सी।

रघुबर भगति प्रेम परमिति सी।।

 

दोहा-

रामकथा मंदाकिनी चित्रकूट चित चारु।

तुलसी सुभग सनेह बन सिय रघुबीर बिहारु।।31।।

 

रामचरित चिंतामनि चारू।

संत सुमति तिय सुभग सिंगारू।।

जग मंगल गुनग्राम राम के।

दानि मुकुति धन धरम धाम के।।

 

सदगुर ग्यान बिराग जोग के।

बिबुध बैद भव भीम रोग के।।

जननि जनक सिय राम प्रेम के।

बीच सकल ब्रत धरम नेम के।।

 

समन पाप संताप सोक के।

प्रिय पालक परलोक लोक के।।

सचिव सुभट भूपति बिचार के।

कुंभज लोक उदधि अपार के।।

 

काम कोह कलिमल करिगन के।

केहरि सावक जन मन बन के।।

अतिथि पूज्य प्रियतम पुरारि के।

कामद घन दारिद दवारि के।।

 

मंत्र महामनि बिषय ब्याल के।

मेटत कठिन कुअंक भाल के।।

हरन मोह तम दिनकर कर के।

सेवक सालि पाल जलधर से।।

 

अभिमत दानि देवतरु बर से।

सेवत सुलभ सुखद हरि हर से।।

सुकबि सरद नभ मन उडगन से।

रामभगत जन जीवन धन से।।

 

सकल सुकृत फल भूरि भोग से।

जग हित निरुपधि साधु लोग से।।

सेवक मन मानस मराल से।

पावन गंग तरंग माल से।।

 

दोहा-

कुपथ कुतरक कुचालि कलि कपट दंभ पाषंड।

दहन राम गुन ग्राम जिमि इंधन अनल प्रचंड।।32()।।

 

रामचरित राकेस कर सरिस सुखद सब काहु।

सज्जन कुमुद चकोर चित हित बिसेषि बड़ लाहु।।32()।।

 

कीन्हि प्रस्न जेहि भाँति भवानी।

जेहि बिधि संकर महा बखानी।।

सो सब हेतु कहब मैं गाई।

कथा प्रबंध बिचित्र बनाई।।

 

जेहिं यह कथा सुनी नहिं होई।

जनि आचरजु करै सुनि सोई।।

कथा अलौकिक सुनहिं जे ग्यानी।

नहिं आचरजु करहिं अस जानी।।

 

रामकथा कै मिति जग नाहीं।

असि प्रतीति तिन्ह के मन माहीं।।

नाना भाँति राम अवतारा।

रामायन सत कोटि अपारा।।

 

कलपभेद हरिचरित सुहाए।

भाँति अनेक मुनीसन्ह गाए।।

करिअ संसय अस उर आनी।

सुनिअ कथा सादर रति मानी।।

 

दोहा-

राम अनंत अनंग गुन अमित कथा बिस्तार।

सुनि आचरजु मानिहहिं जिन्ह कैं बिमल बिचार।।33।।

 

एहि बिधि सब संय करि दूरी।

सिर धरि गुर पद पंकज धूरी।।

पुनि सबही बिनवउँ कर जोरी।

करत कथा जेहिं लाग खोरी।।

 

सादर सिवहि नाइ अब माथा।

बरनउँ बिसद राम गुन गाथा।।

संबत सोरह सै एकतीसा।

करउँ कथा हरि पद धरि सीसा।।

 

नौमी भौम बार मधुमासा।

अवधपुरीं यह चरित प्रकासा।।

जेहि दिन राम जनम श्रुति गावहिं।

तीरथ सकल तहाँ चलि आवहिं।।

 

असुर नाग खग नर मुनि देवा।

आइ करहिं रघुनायक सेवा।।

जन्म महोत्सव रचहिं सुजाना।

करहिं राम कल कीरति गाना।।

 

दोहा-

मज्जहिं सज्जन बृंद बहु पावन सरजू नीर।

जपहिं राम धरि ध्यान उर सुंदर स्याम सरीर।।34।।

 

दरस परस मज्जन अरु पाना।

हरइ पाप कह बेद पुराना।।

नदी पुनीत अमित महिमा अति।

कहि सकइ सारदा बिमल मति।।

 

राम धामदा पुरी सुहावनि।

लोक समस्त बिदित अति पावनि।।

चारि खानि जग जीव अपारा।

अवध तजें तनु नहिं संसारा।।

 

सब बिधि पुरी मनोहर जानी।

सकल सिद्धिप्रद मंगल खानी।।

बिमल कथा कर कीन्ह अरंभा।

सुनत नसाहिं काम मद दंभा।

 

रामचरिमानस एहि नामा।

सुनत श्रवन पाइअ बिश्रामा।।

मन करि बिषय अनल बन जरई।

होइ सुखी जौं एहिं सर परई।।

 

रामचरितमानस मुनि भावन।

बिरचेउ संभु सुहावन पावन।।

त्रिबिध दोष दुख दारिद दावन।

कलि कुचालि कुलि कलुष नसावन।।

 

रचि महेस निज मानस राखा।

पाइ सुसमउ सिवा सन भाषा।।

तातें रामचरिमानस बर।

धरेउ नाम हियँ हेरि हरिष हर।।

 

कहउँ कथा सोइ सुखद सुहाई।

सादर सुनहु सुजन मन लाई।।

 

दोहा-

जस मानस जेहि बिधि भयउ जग प्रचार जेहि हेतु।

अब सोइ कहउँ प्रसंग सब सुमिरि उमा बृषकेतु।।35।।

 

संभु प्रसाद सुमति हियँ हुलसी।

रामचरितमानस कबि  तुलसी।।

करइ मनोहर मति अनुहारी।

सुजन सुचित सुनि लेहु सुधारी।।

 

सुमति भूमि थल हृदय अगाधू।

बेद पुरान उदधि घन साधू।।

बरषहिं राम सुजस बर बारी।

मधुर मनोहर मंगलकारी।।

 

लीला सगुन जो कहहिं बखानी।

सोइ स्वच्छता कर मल हानी।।

प्रेम भगति जो बरनि जाई।

सोइ मधुरता सुसीतलताई।।

 

सो जल सुकृत सालि हित होई।

राम भगत जन जीवन सोई।।

मेधा महि गत सो जल पावन।

सकिलि श्रवन मग चलेउ सुहावन।।

 

भरेउ सुमानस सुथल थिराना।

सुखद सीत रुचि चारु चिराना।।

 

दोहा-

सुठि सुंदर संबाद बर बिरचे बुद्धि बिचारि।

तेइ एहि पावन सुभग सर घाट मनोहर चारि।।36।।

 

सप्त प्रबंध सुभग सोपाना।

ग्यान नयन निरखत मन माना।।

रघुपति महिमा अगुन अबाधा।

बरनब सोइ बर बारि अगाधा।।

 

राम सीय जस सलिल सुधासम।

उपमा बीचि बिलास मनोरम।।

पुरइनि सघन चारु चौपाई।

जुगुति मंजु मनि सीप सुहाई।।

 

छंद सोरठा सुंदर दोहा।

सोइ बहुरंग कमल कुल सोहा।।

अरथ अनूप सुभाव सुभासा।

सोइ पराग मकरंद सुबासा।।

 

सुकृत पुंज मंजुल अलि माला।

ग्यान बिराग बिचार मराला।।

धुनि अवरेब कबित गुन जाती।

मीन मनोहर ते बहुभाँती।।

 

अरथ धरम कामादिक चारी।

कहब ग्यान बिग्यान बिचारी।।

नव रस जप तप जोग बिरागा।

ते सब जलचर चारु तड़ागा।।

 

सुकृती साधु नाम गुन गाना।

ते बिचित्र जलबिहग समाना।।

संतसभा चहुँ दिसि अवँराई।

श्रद्धा रितु बसंत सम गाई।।

 

भगति निरूपन बिबिध बिधाना।

छमा दया दम लता बिताना।।

सम जम नियम फूल फल ग्याना।

हरि पद रति रस बेद बखाना।।

 

औरउ कथा अनेक प्रसंगा।

तेइ सुक पिक बहुबरन बिहंगा।।

 

दोहा-

पुलक बाटिका बाग बन सुख सुबिहंग बिहारु।

माली सुमन सनेह जल सींचत लोचन चारु।।37।।

 

जे गावहिं यह चरित सँभारे।

तेइ एहि ताल चतुर रखवारे।।

सदा सुनहिं सादर नर नारी।

तेइ सुरबर मानस अधिकारी।।

 

अति खल जे बिषई बग कागा।

एहि सर निकट जाहिं अभागा।।

संबुक भेक सेवार समाना।

इहाँ बिषय कथा रस नाना।।

 

तेहि कारन आवत हियँ हारे।

कामी काक बलाक बिचारे।।

आवत एहिं सर अति कठिनाई।

राम कृपा बिनु आइ जाई।।

 

कठिन कुसंग कुपंथ कराला।

तिन्ह के बचन बाघ हरि ब्याला।।

गृह कारज नाना जंजाला।

ते अति दुर्गम सैल बिसाला।।

 

बन बहु बिषम मोह मद माना।

नदीं कुतर्क भयंकर नाना।।

 

दोहा-

जे श्रद्धा संबल रहित नहिं संतन्ह कर साथ।

तिन्ह कहुँ मानस अगम अति जिन्हहि प्रिय रघुनाथ।।38।।

 

जौं करि कष्ट जाइ पुनि कोई।

जातहिं नीद जुड़ाई होई।।

जड़ता जाड़ विषम उर लागा।

गएहूँ मज्जन पाव अभागा।।

 

करि जाइ सर मज्जन पाना।

फिरि आवइ समेत अभिमाना।।

जौं बहोरि कोउ पूछन आवा।

सर निंदा करि ताहि बुझावा।।

 

सकल बिप्र ब्यापहिं नहिं तेही।

राम सुकृपाँ बिलोकहिं जेही।।

सोइ सादर सर मज्जनु करई।

महा घोर त्रयताप जरई।।

 

ते नर यह सर तजहिं काऊ।

जिन्ह कें राम चरन भल भाऊ।।

जो नहाइ चह एहिं सर भाई।

सो सतसंग करउ मन लाई।।

 

अस मानस मानस चख चाही।

भइ कबि बुद्धि बिमल अवगाही।।

भयउ हृदयँ आनंद उछाहू।

उमगेउ प्रेम प्रमोद प्रबाहू।।

 

चली सुभग कबिता सरिता सो।

राम बिमल जस जल भरिता सो।।

सरजू नाम सुमंगल मूला।

लोक बेद मत मंजुल कूला।।

 

नदी पुनीत सुमानस नंदिनि।

कलिमल तृन तरु मूल निकंदिनि।।

 

दोहा-

श्रोता त्रिबिध समाज पुर ग्राम नगर दुहुँ कूल।

संतसभा अनुपम अवध सकल सुमंगल मूल।।39।।

 

रामभगति सुरसरितहि जाई।

मिली सुकीरति सरजु सुहाई।।

सानुज राम समर जासु पावन।

मिलेउ महानदु सोन सुहावन।।

 

जुग बिच भगति देवधुनि धारा।

सोहति सहित सुबिरति बिचारा।।

त्रिबिध ताप त्रासक तिमुहानी।

राम सरूप सिंधु समुहानी।।

 

मानस मूल मिली सुरसरिही।

सुनत सुजन मन पावन करिही।।

बिच बिच कथा बिचित्र बिभागा।

जनु सरि तीर तीर बन बागा।।

 

उमा महेस बिबाह बराती।

ते जलचर अगनित बहुभाँती।।

रघुबर जनम अनंद बधाई।

भवँर तरंग मनोहरताई।।

 

दोहा-

बालचरित चहु बंधु के बनज बिपुल बहुरंग।

नृप रानी परिजन सुकृत मधुकर बारि बिहंग।।40।।

 

सीय स्वयंबर कथा सुहाई।

सरित सुहावनि सो छबि छाई।।

नदी नाव पटु प्रस्न अनेका।

केवट कुसल उतर सबिबेका।।

 

सुनि अनुकथन परस्पर होई।

पथिक समाज सोह सरि सोई।।

घोर धार भृगुनाथ रिसानी।

घाट सुबद्ध राम बर बानी।।

 

सानुज राम बिबाह उछाहू।

सो सुभ उमग सुखद सब काहू।।

कहत सुनत हरषहिं पुलकाहीं।

ते सुकृती मन मुदित नहाहीं।।

 

राम तिलक हित मंगल साजा।

परब जोग जनु जुरे समाजा।।

काई कुमति केकई केरी।
परी जासु फल बिपति घनेरी।।

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