Ramcharitmanas
रामायण चौपाई | रामचरितमानस दोहा 1-5 | रामायण चौपाई अर्थ सहित | बालकाण्ड चौपाई | Ramayan chaupai arth sahit
रामायण बालकाण्ड चौपाई अर्थ सहित दोहा 1–5 | रामचरितमानस
रामायण बालकाण्ड चौपाई अर्थ सहित
वर्णानामर्थसंघानां रसानां छंदसामपि।
मंगलानां च कर्त्तारौ वन्दे वाणीविनायकौ।।1।।
अर्थ- अक्षरों, अर्थसमूहों, रसों, छन्दों, और मंगलों की करने वाली सरस्वती जी और गणेश जी की मैं वंदना करता हूं।
भवानीशंकरौ वन्दे श्रद्धाविश्वासरूपिणौ।
याभ्यां विना न पश्यन्ति सिद्धाः स्वान्तःस्थमीश्वरम्।।2।।
अर्थ- श्रद्धा और विश्वास के स्वरूप श्रीपार्वतीजी और श्रीशंकरजी की मैं वंदना करता हूं, जिनके बिना सिद्धजन अपने अंतःकरण में स्थित ईश्वर को नहीं देख सकते।
वन्दे बोधमयं नित्यं गुरुं शंकररूपिणम्।
यमाश्रितो हि वक्रोऽपि चन्द्रः सर्वत्र वन्द्यते।।3।।
अर्थ- ज्ञानमय, नित्य, शंकररूपी गुरु की मैं वन्दना करता हूं, जिनके आश्रित होने से ही टेढ़ा चन्द्रमा भी सर्वत्र वंदित होता है।
सीतारामगुणग्रामपुण्यारण्यविहारिणौ।
वन्दे विशुद्धविज्ञानौ कवीश्वरकपीश्वरौ।।4।।
अर्थ- श्रीसीतारामजी के गुणसमूहरूपी पवित्र वन में विहार करने वाले, विशुद्ध विज्ञानसंपन्न कवीश्वर श्रीवाल्मीकिजी और कपीश्वर श्रीहनुमानजी की मैं वंदना करता हूं।
उद्भवस्थितिसंहारकारिणीं क्लेशकारिणीम्।
सर्वश्रेयस्करीं सीतां नतोऽहं रामवल्लभाम्।।5।।
अर्थ- उत्पत्ति, स्थिति (पालन) और संहार करने वाली, क्लेशों की हरने वाली तथा संपूर्ण कल्याणें की करने वाली श्रीरामचंद्र जी की प्रियतमा श्रीसीताजी को मैं नमस्कार करता हूं।
यन्मायावषवर्त्ति विश्वमखिलं ब्रह्मादिदेवासुरा।
यत्सत्त्वादमृषैव भाति सकलं रज्जौ यथादेर्भ्रमः।
यत्पादप्लवमेकमेव हि भवाम्भोधेस्तितीर्षावतां
वन्देऽहं तमशेषकारणपरं रामाख्यमीशं हरिम्।।6।।
अर्थ- जिनकी माया के वशीभूत संपूर्ण विश्व, ब्रह्मदि देवता और असुर हैं, जिनकी सत्ता से रस्सी में सर्प के भ्रम की भांति यह सारा दृश्य-जगत् सत्य ही प्रतीत होता है और जिनके केवल चरण ही भवसागर से तरने की इच्छावालों के लिये एकमात्रा नौका हैं, उन समस्त कारणों से पर (सब कारणों के कारण और सबसे श्रेष्ठ) राम कहने वाले भगवान् हरि की मैं वंदना करता हूं।
नाना पुराणनिगमागमसम्मतं यद्
रामायणे निगदितं क्वचिदन्यतोऽपि।
स्वान्तःसुखाय तुलसी रघुनाथगाथा-
भाषानिबन्धमतिमंजुलमातनोति।।7।।
अर्थ- अनेक पुराण, वेद और शास्त्र से सम्मत तथा जो रामायण में वर्णित है और कुछ अन्यत्र से भी उपलब्ध श्रीरघुनाथ जी की कथा को तुलसीदास अपने अन्तःकरण के सुख के लिये अत्यंत मनोहर भाषा रचना में विस्तृत करता है।
सो.
जो सुमिरत सिधि होइ गन नायक करिबर बदन।
करउ अनुग्रह सोइ बुद्धि रासि सुभ गुन सदन।। 1 ।।
अर्थ- जिन्हें स्मरण करने से सब कार्य सिद्ध होते हैं, जो गणों के स्वामी और सुन्दर हाथी के मुखवाले हैं, वे ही बुद्धि के राशि और शुभ गुणों के धाम (श्रीगणेशजी) मुझपर कृपा करें।
मूक होइ बाचाल पंगु चढ़इ गिरिबर गहन।
जासु कृपा सो दयाल द्रवउ सकल कलि मल दहन।। 2।।
अर्थ- जिनकी कृपा से गूंगा बहुत सुंदर बोलने वाला हो जाता है और लंगड़ा-लूला दुर्गम पहाड़ पर चढ़ जाता है, वे कलियुग के सबस पापों को जला डालने वाले दयालु मुझपर द्रवित हों और दया करें।
नील सरोरुह स्याम तरुन अरुन बारिज नयन।
करउ सो मम उर धाम सदा छीरसागर सयन।। 3।।
अर्थ- जो नील कमल के समान श्यामवर्ण है, पूर्ण खिले हुए लाल कमल के समान जिनके नेत्रा हैं और जो सदा क्षीरसागर में शयन करते हैं, वे भगवान् नारायण मेरे हृदय में निवास करें।
कुंद इंदु सम देह उमा रमन करुना अयन।
जाहि दीन पर नेह करउ कृपा मर्दन मयन।।4।।
अर्थ- जिनका कुन्द के पुष्प और चन्द्रमा के समान गौर शरीर है, जो पार्वती जी के प्रियतम और दया के धाम हैं और जिनका दीनों पर स्नेह है, वे कामदेव का मर्दन करने वाले शंकरजी मुझ पर कृपा करें।
बंदउ गुरु पद कंज कृपा सिंधु नररूप हरि।
महामोह तम पुंज जासु बचन रबि कर निकर।।5।।
अर्थ- मैं उन गुरु महाराज के चरण कमल की वंदना करता हूं, जो कृपा के समुद्र और नररूप में श्रीहरि ही हैं और जिनके वचन महामोहरूपी घने अंधकार के नाश करने के लिए सूर्य-किरणों के समूह हैं।
बंदउ गुरु पद पदुम परागा।
सुरुचि सुबास सरस अनुरागा।।
अमिअ मूरिमय चूरन चारू।
समन सकल भव रुच परिवारू।।
अर्थ- मैं गुरु महाराज के चरणकमलों की रज की वंदना करता हूं, जो सुरुचि (सुंदर, स्वाद), सुगंध तथा अनुरागरूपी रस से पूर्ण है। वह अमर मूल (संजीवनी जड़ी) का सुंदर चूर्ण है, जो संपूर्ण भवरोगों के परिवार को नाश करने वाला है।
सुकृति संभु तन बिमल बिभूती।
मंजुल मंगल मोद प्रसूती।।
जन मन मंजु मुकुर मल हरनी।
किएँ तिलक गुन गन बस करनी।।
अर्थ- वह रज सुकृती (पुण्यवान पुरुष) रूपी शिवजी के शरीर पर सुशोभित निर्मल विभूति है और सुन्दर कल्याण और आनंद की जननी है, भक्त के मनरूपी सुंदर दर्पण के मैल को दूर करने वाली और तिलक करने से गुणों के समूह को वश में करने वाली है।
श्रीगुर पद नख मनि गन जोती।
सुमिरत दिब्य दृष्टि हियँ होती।।
दलन मोह तम सो सप्रकासू।
बड़े भाग उर आवइ जासू।।
अर्थ- श्री गुरु महाराज के चरण-नखों की ज्योति मणियों के प्रकाश के समान है, जिसके स्मरण करते ही हृदय में दिव्य दृष्टि उत्पन्न हो जाती है। वह प्रकाश अज्ञानरूपी अंधकार का नाश करने वाला है; वह जिसके हृदय में आ जाता है, उसके बड़े भाग्य हैं।
उघरहिं बिमल बिलोचन ही के।
मिटहिं दोष दुख भव रजनी के।।
सूझहिं राम चरित मनि मानिक।
गुपुत प्रगट जहँ जो जेहि खानिक।।
अर्थ- उसके हृदय में आते ही हृदय के निर्मल नेत्र खुल जाते हैं और संसाररूपी रात्रि के दोष-दुःख मिट जाते हैं एवं श्रीरामचन्द्रचरित्ररूपी मणि और माणिक्य, गुप्त और प्रकट जहाँ जो जिस खान में है, सब दिखायी पड़ने लगते हैं।
दो&
जथा सुअंजन अंजि दृग साधक सिद्ध सुजान।
कौतुक देखत सैल बन भूतल भूरि निधान।।1।।
अर्थ- जैसे सिद्धांजन को नेत्रों में लगाकर साधक, सिद्ध और सुजान पर्वतों, वनों और पृथ्वी के अंदर कौतुक से ही बहुत-सी खानें देखते हैं।
गुरु पद रज मृदु मंजुल अंजन।
नयन अमिअ दृग दोष बिभंजन।।
तेहिं करि बिमल बिबेक बिलोचन।
बरनउँ राम चरित भव मोचन।।
अर्थ- श्रीगुरु महाराज के चरणों की रज कोमल और सुंदर नयनामृत-अंजन है, जो नेत्रों के दोषों का नाश करने वाला है। उस अंजन से विवेकरूपी नेत्रों को निर्मल करके मैं संसाररूपी बंधन से छुड़ाने वाले श्रीरामचरित्र का वर्णन करता हूं।
बदउँ प्रथम महीसुर चरना।
मोह जनित संसय सब हरना।।
सुजन समाज सकल गुन खानी।
करउँ प्रनाम सप्रेम सुबानी।।
अर्थ- पहले पृथ्वी के देवता ब्राह्मणों के चरणों की वन्दना करता हूं, जो अज्ञान से उत्पन्न सब संदेहों को हरने वाले हैं। फिर सब गुणों की खान संत-समाज को प्रेमसहित सुंदर वाणी से प्रणाम करता हूं।
साधु चरित सुभ चरित कपासू।
निरस बिसद गुनमय फल जासू।।
जो सहि दुख परिछद्र दुरावा।
बंदनीय जेहिं जग जस पावा।।
अर्थ- संतों का चरित्र कपास के चरित्र के समान शुभ है। जिसका फल नीरस, विशद और गुणमय होता है। कपास का धागा सुई के किये हुए छेद को अपना तन देकर ढक देता है, अथवा कपास जैसे लोढ़े जाने वाले, काते जाने और बुने जाने का कष्ट सहकर भी वस्त्र के रूप में परिणत होकर दूसरों के गोपनीय स्थानों को ढकता है उसी प्रकार संत स्वयं को दुखकर सहकर दूसरों के दोषों का ढकता है, जिसके कारण उसने जगत में वंदनीय यश प्राप्त किया है।
मुद मंगलमय संत समाजू।
जो जग जंगम तीरथराजू।।
राम भक्ति जहँ सुरसरि धारा।
सरसई ब्रह्म बिचार प्रचारा।।
अर्थ- संतों का समाज आनंद और कल्याणमय है, जो जगत में चलता-फिरता तीर्थराज प्रयाग है। जहां रामभक्तिरूपी गंगाजी की धारा है और ब्रह्मविचार का प्रचार सरस्वती जी है।
बिधि निषेधमय कलिमल हरनी।
करम कथा रबिनंदनि बरनी।।
हरि हर कथा बिराजति बेनी।
सुनत सकल मुद मंगल देनी।।
अर्थ- विधि और निषेध (यह करो यह न करो) रूपी कर्मों की कथा कलियुग के पापों को हरने वाली सूर्यतनया यमुनाजी हैं और भगवान् विष्णु और शंकरजी की कथाएं त्रिवेणी रूप से सुशोभित हैं, जो सुनते ही सब आनंद और कल्याणों की देने वाली हैं।
बटु बिस्वास अचल निज धरमा।
तीरथराज समाज सुकरमा।।
सबहि सुलभ सब दिन सब देसा।
सेवत सादर समन कलेगा।।
अर्थ- अपने धर्म में जो अटल विश्वास है वह अक्षयवट है, और शुभकर्म ही उस तीर्थराज का समाज है। वह सब देशों में, सब समय सभी को सहज ही में प्राप्त हो सकता है और आदरपूर्वक सेवन करने से क्लेशों को नष्ट करने वाला है।
अकथ अलौकिक तीरथराऊ।
देइ सद्य फल प्रगट प्रभाऊ।।
अर्थ- वह तीर्थराज अलौकिक और अकथनीय है, एवं तत्काल फल देने वाला है, उसका प्रभाव प्रत्यक्ष है।
दोहा-
सुनि समुझहिं जन मुदित मन मज्जहिं अति अनुराग।
लहहिं चारि फल अछत तनु साधु समाज प्रयाग ।।2।।
अर्थ- जो मनुष्य इस संत-समाजरूपी तीर्थराज का प्रभाव प्रसन्न मन से सुनते और समझते हैं और फिर अत्यंत प्रेमपूर्वक इसमें गोते लगाते हैं, वे इस शरीर के रहते ही धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष-चारों फल पा जाते हैं।
मज्जन फल पेखिअ ततकाला।
काक होहिं पिक बकउ मराला।।
सुनि अचरज करै जनि कोई।
सतसंगति महिमा नहिं गोई।।
अर्थ- इस तीर्थराज में स्नान का फल तत्काल ऐसा देखने में आता है कि कौए कोयन बन जाते हैं और बगुले हंस। यह सुनकर कोई आश्चर्य न करे, क्योंकि सत्संग की महिमा छिपी नहीं है।
बालमीक नारद घटजोनी।
निज निज मुखनि कही निज होनी।।
जलचर थलचर नभचर नाना।
जे जड़ चेतन जीव जहाना।।
अर्थ- वाल्मीकिजी, नारदजी और अगत्स्यजी ने अपने-अपने मुखों से अपनी होनी कही है। जल में रहने वाले, जमीन पर चलने वाले और आकाश में विचरने वाले नाना प्रकार के जड़-चेतन जितने जीव इस जगत में हैं।
मति कीरति गति भूति भलाई।
जब जेहिं जतन कहाँ जेहिं पाई।।
सो जानब सतसंग प्रभाऊ।
लोकहुँ बेद न आन उपाऊ।।
अर्थ- उनमें से जिसने जिस समय जहां भी जिस किसी यत्न से बुद्धि, कीर्ति, सद्गति, विभूति और भलाई पायी है, सो सब सत्संग का ही प्रभाव समझना चाहिए। वेदों में और लोक में इनकी प्राप्ति का दूसरा कोई उपाय नहीं है।
बिनु सतसंग बिबेक न होई।
राम कृपा बिनु सुलभ न सोई।।
सतसंगत मुद मंगल मूला।
सोइ फल सिधि सब साधन फूला।।
अर्थ- सत्संग के बिना विवेक नहीं होता और श्रीरामजी की कृपा के बिना वह सत्संग सहज में मिलता नहीं। सत्संगति आनंद और कल्याण की जड़ है। सत्संग की सिद्धि ही फल है और सब साधन तो फूल है।
सठ सुधरहिं सतसंगति पाई।
पारस परस कुधात सुहाई।।
बिधि बस सुजन कुसंगत परहीं।
फनि मनि सम निज गुन अनुसरहीं।।
अर्थ- दुष्ट भी सत्संगति पाकर सुधर जाते हैं, जैसे पारस के स्पर्श से लोहा सुहावना हो जाता है। किन्तु दैवयोग से यदि कभी सज्जन कुसंगति में पड़ जाते हैं, तो वे वहां भी सांप की मणि के समान अपने गुणों का ही अनुसरण करते हैं।
बिधि हरि हर कबि कोबिद बानी।
कहत साधु महिमा सकुचानी।
सो मो सन कहि जात न कैसें।
साक बनिक मनि गुन गन जैसें।।
अर्थ- ब्रह्मा, विष्णु, शिव, कवि और पंडितों की वाणी भी संत-महिमा का वर्णन करने में सकुचाती है, वह मुझसे किस प्रकार नहीं कही जाती, जैसे साग-तरकारी बेचने वाले से मणियों के समूह नहीं कहे जा सकते।
दोहा-
बंदऊ संत समान चित हित अनहित नहिं कोइ।
अंजलि गत सुभ सुमन जिमि सम सुगंध कर दोइ।।
3 क।।
अर्थ- मैं संतों को प्रणाम करता हूं, जिनके चित्त में समता है, जिनका न कोई मित्र है और न शत्रु। जैसे अंजलि में रखे हुए सुंदर फूल दोनों ही हाथों को समान रूप से सुंगधित करते हैं। वैसे ही संत शत्रु और मित्र दोनों का ही समान रूप से कल्याण करते हैं।
संत सरल चित जगत हित जानि सुभाउ सनेहु।
बालबिनय सुनि करि कृपा राम चरन रति देहु।।
3 ख।।
अर्थ- संत सरल हृदय और जगत के हितकारी होते हैं, उनके ऐसे स्वभाव और स्नेह को जानकर मैं विनय करता हूं, मेरी इस बात-विनय को सुनकर कृपा करके श्रीरामजी के चरणों में मुझ प्रीति दें।
बहुरि बंदि खल गन सतिभाएँ।
जे बिनु काज दाहिनेहु बाएँ।।
पर हित हानि लाभ जिन्ह केरें।
उजरें हरष बिषाद बसेरें।।
अर्थ- अब मैं सच्चे भाव से दुष्टों को प्रणाम करता हूं, जो बिना ही प्रयोजन, अपना हित करने वाले के भी प्रतिकूल आचरण करते हैं। दूसरों के हित की हानि ही जिनकी दृष्टि में लाभ है, जिनको दूसरों के उजड़ने में हर्ष और बसने में विषाद होता है।
हरि हर जस राकेस राहु से।
पर अकाज भट सहसबाहु से।।
जे पर दोष लखहिं सहसाखी।
पर हित घृत जिन्ह के मन माखी।
अर्थ- जो हरि और हर के यशरूपी पूर्णिमा के चंद्रमा के लिये राहु के समान हैं और दूसरों की बुराई करने में सहस्रबाहु के समान वीर हैं। जो दूसरों के दोषों को हजार आंखों से देखते हैं और दूसरों के हितरूपी घी के लिये जिनका मन मक्खी के समान है।
तेज कृसानु रोष महिषेसा।
अघ अवगुन धन धनी धनेसा।।
उदय केत सम हित सबही के।
कुंभकरन सम सोवत नीके।।
अर्थ- जो तेज में अग्नि और क्रोध में यमराज के समान हैं, पाप और अवगुणरूपी धन में कुबेर के समान धनी हैं, जिनकी बढ़ती सभी के हित का नाश करने के लिये केतु के समान है, और जिनके कुंभकण्र की तरह सोते रहने में ही भलाई है।
पर अकाजु लगि तनु परिहरहीं।
जिमि हिम उपल कृषी दलि गरहीं।।
बंदउँ खल जस सेष सरोषा।
सहस बदन बरनइ पर दोषा।।
अर्थ- जैसे ओले खेती का नाश करके आप भी गल जाते हैं, वैसे ही वे दूसरांे का काम बिगाड़ने के लिये अपना शरीर तक छोड़ देते हैं। मैं दुष्टों को शेषजी के समान समझकर प्रणाम करता हूं, जो पराये दोषों का हजार मुखों से बड़े रोष के साथ वर्णन करते हैं।
पुनि प्रनवउँ पृथुराज समाना।
पर अघ सुनइ सहस दस काना।।
बहुरि सक्र सम बिनवउँ तेही।
संतत सुरानीक हित जेही।।
अर्थ- पुनः उनको राजा पृथु के समान जानकार प्रणाम करता हूं, जो दस हजार कानों से दूसरों को पापों को सुनते हैं। फिर इंद्र के समान मानकर उनकी विनय करता हूं, जिसको सुरा नीकी और हितकारी मालूम देती है।
बचन बज्र जेहि सदा पिआरा।
सहस नयन पर दोष निहारा।।
अर्थ- जिनको कठोर वचनरूपी वज्र सदा प्यारा लगता है और जो हजार आंखों से दूसरों के दोषों को देखते हैं।
दोहा-
उदासीन अरि मीत हित सुनत जरहिं खल रीति।
जानि पानि जुग जोरि जन बिनती करइ सप्रीति।।4।।
अर्थ- दुष्टों की यह रीति है कि वे उदासीन, शत्रु अथवा मित्र, किसी का भी हित सुनकर जलते हैं। यह जानकर दोनों हाथ जोड़कर यह जन प्रेमपूर्वक उनसे विनय करता है।
मैं अपनी दिसि कीन्ह निहोरा।
तिन्ह निज ओर न लाउब भोरा।।
बायस पलिअहिं अति अनुरागा।
होहिं निरामिष कबहुँ कि कागा।।
अर्थ- मैंने अपनी ओर से विनती की है, परंतु वे अपनी ओर से कभी नहीं चूकेंगे। कौओं को बड़े प्रेम से पालिये, किंतु वे क्या वे कभी मांस खाना छोड़ सकते हैं?
बंदउँ संत असज्जन चरना।
दुखप्रद उभय बीच कछु बरना।।
बिछुरत एक प्रान हरि लेहीं।
मिलत एक दुख दारुन देहीं।
अर्थ- अब मैं संत और असंत दोनों के चरणों की वंदना करता हूं। दोनों ही दुख देने वाले हैं, परंतु उनमें कुछ अंतर कहा गया है। अंतर यह है कि एक बिछुड़ते समय प्राण हर लेते हैं और दूसरे मिलते हैं तब दारुण दुःखदेते हैं।
उपजहिं एक संग जग माहीं।
जलज जोंक जिमि गुन बिलगाहीं।।
सुधा सुरा सम साधु असाधू।
जनक एक जग जलधि अगाधू।।
अर्थ- दोनों (संत और असंत) जगत में एक-साथ् पैदा होते हैं, पर कमल और जोंक की तरह उनके गुण और स्वभाव अलग-अलग होते हैं। साधु अमृत के समान और असाधु मदिरा के समान है, दोनों को उत्पन्न करने वाला जगद्रूपी अगाध समुद्र एक ही है।
भल अनभल निज निज करतूती।
लहत सुजस अपलोक बिभूती।।
सुधा सुधाकर सुरसरि साधू।
गरल अनल कलिमल सरि ब्याधू।।
गुन अवगुन जानत सब कोई।
जो जेहि भाव नीक तेहि सोई।।
अर्थ- भले और बुरे अपनी-अपनी करनी के अनुसार सुंदर यश और अपयश की संपत्ति पाते हैं। अमृत, चंद्रमा, गंगाजी और साधु एवं विष, अग्नि, कलियुग के पापों की नदी अर्थात् कर्मनाशा और हिंसा करने वाला व्याध, इनके गुण-अवगुण सब कोई जानते हैं, किंतु जिसे जो भाता है, उसे वही अच्छा लगता है।
दोहा-
भलो भलाइहि पै लहइ लहइ निचाइहि नीचु।
सुधा सराहिअ अमरताँ गरल सराहिअ मीचु ।। 5।।
अर्थ- भला भलाई ही ग्रहण करता है और नीच नीचता को ही ग्रहण किये रहता है। अमृत की सराहना अमर करने में होती है और विष की मारने में।
खल अघ अगुन साधु गुन गाहा।
उभर अपार उदधि अवगाहा।।
उभर अपार उदधि अवगाहा।।
तेहि तें कछु गुन दोष बखाने।
संग्रह त्याग न बिनु पहिचाने।।
संग्रह त्याग न बिनु पहिचाने।।
अर्थ- दुष्टों के पापों और अवगुणों की और साधुओं के गुणों की कथाएं-दोनों ही अपार और अथाह समुद्र हैं। इसी से कुछ गुण और दोषों का वर्णन किया गया है, क्योंकि बिना पहचाने उनका ग्रहण या त्या नहीं हो सकता।
भलेउ पोच सब बिधि उपजाए।
गनि गुन दोष बेद बिलगाए।।
गनि गुन दोष बेद बिलगाए।।
कहहिं बेद इतिहास पुराना।
बिधि प्रपंचु गुन अवगुन साना।।
बिधि प्रपंचु गुन अवगुन साना।।
अर्थ- भले, बुरे सभी ब्रह्मा के पैदा किये हुए हैं, पर गुण और दोषों को विचारकर वेदों ने उनको अलग-अलग कर दिया है। वेद, इतिहास और पुराण कहते हैं कि ब्रह्मा की यह सृष्टि गुण-अवगुणों से सनी हुई है।
दुख सुख पाप पुन्य दिन राती।
साधु असाधु सुजाति कुजाती।।
साधु असाधु सुजाति कुजाती।।
दानव देव ऊंच अरु नीचू।
अमिअ सुजीवनु माहुरु मीचू।।
अमिअ सुजीवनु माहुरु मीचू।।
अर्थ- देवता, दैत्य, मनुष्य, नाग, पक्षी, प्रेत, पितर, गन्धर्व, किन्नर और निशाचर सबको मैं प्रणाम करता हूं। अब सब मुझ पर कृपा कीजिए।
माया ब्रह्म जीव जगदीसा।
लच्छि अलच्छि रंक अवनीसा।।
लच्छि अलच्छि रंक अवनीसा।।
कासी मग सुरसरि क्रमनासा।
मरु मारव महिदेव गवासा।।
मरु मारव महिदेव गवासा।।
सरग नरक अनुराग बिरागा।
निगमागम गुन दोष बिभागा।।
निगमागम गुन दोष बिभागा।।
अर्थ- दुःख-सुख, पाप-पुण्य, दिन-रात, साधु-असाधु, सुजाति-कुजाति, दानव-देवता, ऊंच-नीच, अमृत-विष, सुजीवन (सुंदर जीवन)-मृत्यु, माया-ब्रह्म, जीव-ईश्वर, संपत्ति-दरिद्रता, रंक-राजा, काशी-मगध, गंगा-कर्मनाशा, मारवाड़-मालवा, ब्राह्मण-कसाई, स्वर्ग-नरक, अनुराग-वैराग्य, ये सभी पदार्थ ब्रह्मा की सृष्टि में हैं। वेद-शास्त्रों में उनके गुण-दोषों का विभाग कर दिया है।
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4 Comments
जय श्री राम, मानस में ध्यान लगाने से मन प्रसन्न एवं आत्मा को शांति मिलती हैं।
ReplyDeleteश्री राम जय राम जय जय राम
श्री राम जय राम जय जय राम
Jai shri ram
ReplyDelete🌹🌹🌹जय श्री राम 🌹🌹🌹🚩🚩🚩🙏🙏🙏🙏🙏🙏
ReplyDeleteJai shree Ram Sita Ram 🙏🙏
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