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संपूर्ण सुंदरकाण्ड चौपाई - Sampoorn Sundarkand Chaupai | Ramayan chaupai | Ramcharitmans sundarkand chaupai

 संपूर्ण सुंदरकाण्ड चौपाई


श्री रामचरितमानस 
पंचम सोपान
सुन्दरकाण्ड 

श्लोक

शान्तं शाश्वतमप्रमेयमनघं निर्वाणशान्तिप्रदं
ब्रह्माशम्भुफणीन्द्रसेव्यमनिशं वेदान्तवेद्यं विभुम्।
रामाख्यं जगदीश्वरं सुरगुरुं मायामनुष्यं हरिं
वन्देऽहं करुणाकरं रघुवरं भूपालचूडामणिम्।।1।।

नान्या स्पृहा रघुपते हृदयेऽस्मदीये
सत्यं वदामि च भवनखिलान्तरात्मा।
भक्तिं प्रयच्छ रघुपुंगव निर्भरां मे
कामादिदोषरहितं कुरु मानसं च।।2।।

अतुलितबलधामं हेमशैलाभदेहं
दनुजवनकृशानुं ज्ञानिनामग्रगण्यम्।
सकलगुणनिधानं वानराणामधीशं
रघुपतिप्रियभक्तं वातजातं नमामि।।3।।

जामवंत के बचन सुहाए। 

सुनि हनुमंत हृदय अति भाए।।

तब लगि मोहि परिखेहु तुम्ह भाई।

सहि दुख कंद मूल फल खाई।।


जब लगि आवौं सीतहि देखी। 

होइहि काजु मोहि हरष बिसेषी।।

यह कहि नाइ सबन्हि कहुं  माथा। 

चलेउ हरषि हियं धरि रघुनाथा।।


सिंधु तीर एक भूधर सुंदर। 

कौतुक कूदि चढ़ेउ ता ऊपर।।

बार बार रघुबीर संभारी।

तरकेउ पवनतनय बल भारी।।


जेहिं गिरि चरन देइ हनुमंता।

चलेउ सो गा पाताल तुरंता।।

जिमि अमोघ रघुपति कर बाना।

एही भांति चलेउ हनुमाना।।


जलनिधि रघुपति दूत बिचारी।

तैं मैनाक होहि श्रमहारी।।


दोहा-

हनूमान तेहि परसा 

कर पुनि कीन्ह प्रनाम।

राम काजु कीन्हें बिनु 

मोहि कहां बिश्राम।।1।।


जात पवनसुत देवन्ह देखा। 

जानैं कहुं बल बुद्धि बिसेषा।।

सुरसा नाम अहिन्ह कै माता।

पठइन्हि आइ कही तेहिं बाता।।


आजु सुरन्ह मोहि दीन्ह अहारा।

सुनत बचन कह पवनकुमारा।।

राम काजु करि फिरि में आवौं।

सीता कइ सुधि प्रभुहि सुनावौं।।


तब तव बदन पैठिहउं आई।

सत्य कहउं मोहि जान दे माई।।

कवनेहंु जतन देइ नहिं जाना।

ग्रससि न मोहि कहेउ हनुमाना।


जोजन भरि तेहिं बदनु पसारा।

कपि तनु कीन्ह दुगुन बिस्तारा।।

सोरह जोजन मुख तेहिं ठयऊ।

तुरत पवनसुत बत्तिस भयऊ।।


जस जस सुरसा बदनु बढ़ावा।

तासु दून कपि रूप देखावा।।

सत जोजन जेहिं आनन कीन्हा।

अति लघु रूप पवनसुत लीन्हा।।


बदन पइठि पुनि बाहेर आवा।

मांगा बिदा ताहि सिरू नावा।।

मोहि सुरन्ह जेहि लागि पठावा।

बुधि बल मरमु तोर मैं पावा।।


दोहा-

राम काजु सबु करिहहु

तुम्ह बल बुद्धि निधान।

आसिष देइ गई सो 

हरषि चलेउ हनुमान।।2।।


निसिचरि एक सिंधु महुं रहई।

करि माया नभु के खग गहई। 

जीव जंतु ते गगन उड़ाहीं।

जल बिलोकि तिन्ह कै परिछाहीं। 


गहइ छाहं सक सो न उड़ाई।

एहि बिधि सदा गगनचर खाई।।

सोइ छल हनूमान कहं कीन्हा।

तासु कपटु कपि तुरतहिं चीन्हा।।


ताहि मारि मारुतसुत बीरा।

बारिधि पार गयउ मतिधीरा।।

तहां जाइ देखी बन सोभा।

गुंजत चंचरीक मधु लोभा।।


नाना तरु फल फूल सुहाए।

खग मृग बृंद देखि मन भाए।।

सैल बिसाल देख एक आगें।

ता पर धाइ चढ़ेउ भय त्यागें।।


उमा न कछु कपि कै अधिकाई।

प्रभु प्रताप जो कालहि खाई।।

गिरि पर चढ़ि लंका तेहिं देखी।

कहि न जाइ अति दुर्ग बिसेषी।।


अति उतंग जलनिधि चहु पासा।

कनक कोट कर परम प्रकासा।।


छंद-

कनक कोट बिचित्र मनि

कृत सुंदरायतना घना।

चउहट्ट हट्ट सुबट्ट बीथीं

चारु पुर बहु बिधि बना।।

गज बाजि खच्चर निकर

पदचर रथ बरुथन्हि को गनै।

बहुरूप निसिचर जूथ अतिबल

सेन बरनत नहिं बनै।।


बन बाग उपबन बाटिका सर

कूप बापीं सोहहीं।

नर नाग सुर गंधर्ब कन्या

रूप मुनि मन मोहहीं।।

कहुं माल देह बिसाल सैल 

समान अतिबल गर्जहीं।

नाना आखरेन्ह भिरहिं 

बहुबिधि एक एकन्ह तर्जहीं।।


करि जतन भट कोटिन्ह बिकट 

तन नगर चहुं दिसि रच्छहीं।

हुं महिष मानुष धेनु खर 

अज खल निसाचर भच्छहीं।।

एहि लागि तुलसीदास इन्ह 

की कथा कछु एक है कही।

रघुबीर सर तीरथ सरीरन्हि 

त्यागि गति पैहहिं सही।।


दोहा-

पुर रखवारे देखि बहु 

कपि मन कीन्ह बिचार।

अति लघु रूप धरौं निसि 

नगर करौं पइसार।।3।।


मसक समान रूप कपि धरी।

लंकहि चलेउ सुमिरि नरहरी।।

नाम लंकिनी एक निसिचरी।

सो कह चलेसि मोहि निंदरी।।


जानेहि नहीं मरमु सठ मोरा।

मोर अहार जहां लगि चोरा।।

मुठिका एक महा कपि हनी।

रुधिर बमत धरनीं ढनमनी।।


पुनि संभारि उठी सो लंका।

जोरि पानि कर बिनय संसका।।

जब रावनहि ब्रह्म बर दीन्हा।

चलत बिरंचि कहा मोहि चीन्हा।।


बिकल होसि तैं कपि के मारे।

तब जानेसु निसिचर संघारे।।

तात मोर अति पुन्य बहूता।

देखेउऊ नयन राम कर दूता।।


दोहा-

तात स्वर्ग अपबर्ग सुख 

धरिअ तुला एक अंग।

तूल न ताहि सकल मिलि 

जो सुख लव सतसंग।।4।।


प्रबिसि नगर कीजे सब काजा।

हृदयँ राखि कोसलपुर राजा।।

गरल सुधा रिपु करहिं मिताई।

गोपद सिंधु अनल सितलाई।।


गरुड़ सुमेरु रेनु सम ताही।

राम कृपा करि चितवा जाही।।

अति लघु रूप धरेउ हनुमाना।

पैठा नगर सुमिरि भगवाना।।


मंदिर मंदिर प्रति कर सोधा।

देखे जहँ जहँ अगनित जोधा।।

गयउ दसानन मंदिर माहीं।

अति बिचित्र कहि जात सो नाहीं।।


सयन किएँ देखा कपि तेही।

मंदिर महुँ न दीखि बैदेही।।

भवन एक पुनि दीख सुहावा।

हरि मंदिर तहँ भिन्न बनावा।।


दोहा-

रामायुध अंकित गृह 

सोभा बरनि न जाइ।

नव तुलसिका बृंद तहँ 

देखि हरष कपिराइ।।5।।


लंका निसिचर निकर निवासा।

इहाँ कहाँ सज्जन कर बासा।।

मन महुँ तरक करैं कपि लागा।

तेहीं समय बिभीषनु जागा।।


राम राम तेहिं सुमिरन कीन्हा।

हृदयँ हरष कपि सज्जन चीन्हा।।

एहि सन हठि करिहउँ पहिचानी।

साधु ते होइ न कारज हानी।।


बिप्र रूप धरि बचन सुनाए।

सुनत बिभीषन उठि तहँ आए।।

करि प्रनाम पूँछी कुसलाई।

बिप्र कहहु निज कथा बुझाई।।


की तुम्ह हरि दासन्ह महँ कोई।

मोरें हृदय प्रीति अति होई।।

की तुम्ह रामु दीनु अनुरागी।

आयहु मोहि करन बड़भागी।।


दोहा-

तब हनुमंत कही सब 

राम कथा निज धाम।

सुनत जुगल तन पुलक 

मन मगन सुमिरि गुन ग्राम।।6।।


सुनहु पवनसुत रहनि हमारी।

जिमि दसनन्हि महुँ जीभ बिचारी।।

तात कबहुं मोहि जानि अनाथा।

करिहहिं कृपा भानुकूल नाथा।।


तामस तनु कछु साधन नाहीं।

प्रीति न पद सरोज मन माहीं।।

अब मोहि भा भरोस हनुमंता।

बिनु हरिकृपा मिलहिं नहिं संता।।


जौं रघुबीर अनुग्रह कीन्हा।

तौ तुम्ह मोहि दरसु हठि दीन्हा।।

सुनहु बिभीषन प्रभु कै रीती।

करहिं सदा सेवक पर प्रीति।।


कहहु कवन मैं परम कुलीना।

कपि चंचल सबहीं बिधि हीना।।

प्रात लेइ जो नाम हमारा।

तेहि दिन ताहि न मिलै अहारा।।


दोहा-

अस मैं अधम सखा सुनु

मोहू पर रघुबीर।

कीन्ही कृपा सुमिरि गुन 

भरे बिलोचन नीर।।7।।


जानतहूं अस स्वामि बिसारी।

फिरहिं ते काहे न होहिं दुखारी।।

एहि बिधि कहत राम गुन ग्रामा।

पावा अनिर्बाच्य बिश्रामा।


पुनि सब कथा बिभीषन कही।

जेहि बिधि जनकसुता तहँ रही।

तब हनुमंत कहा सुनु भ्राता।

देखी चहउँ जानकी माता।


जुगुति बिभीषन सकल गुनाई।

चलेउ पवनसुत बिदा कराई।।

करि सोइ रूप गयउ पुनि तहवां।

बन असोक सीता रह जहवाँ।।


देखि मनहिं महुं कीन्ह प्रनामा।

बैठेहिं बीति जात निसि जामा।।

कृस तनु सीस जटा एक बेनी।

जपति हृदयँ रघुपति गुन श्रेनी।।


दोहा-

निज पद नयन दिएं मन 

राम पद कमल लीन।

परम दुखी भा पवनसुत 

देखि जानकी दीन।।8।।


तरु पल्लव महुं रहा लुकाई।

करइ बिचार करौं का भाई।।

तेहि अवसर रावनु तहँ आवा।

संग नारि बहु किएं बनावा।।


बहु बिधि खल सीतहि समुझावा।

साम दान भय भेद देखावा।

कह रावनु सुनु सुमुखि सयानी।

मंदोदरी आदि सब रानी।


तव अनुचरीं करउं पन मोरा।

एक बार बिलोकु मम ओरा।

तृन धरि ओट कहति बैदेही।

सुमिरि अवधपति परम सनेही।


सुनु दसमुख खद्योत प्रकासा।

कबहुं कि नलिनी करइ बिकासा।।

अस मन समुझु कहति जानकी।

खल सुधि नहिं रघुबीर बान की।।


सठ सुनें हरि आनेहि मोही।

अधम निलज्ज लाज नहिं तोही।।


दोहा-

आपुहि सुनि खद्योत सम 

रामहि भानु समान।

परुष बचन सुनि काढ़ि असि 

बोला अति खिसिआन।।9।।


सीता तैं मम कृत अपमाना।

कटिहउँ तव सिर कठिन कृपाना।।

नाहिं सपदि मानु मम बानी।

सुमुखि होति जीवन हानी।।

 

स्याम सरोज दाम सम सुंदर।

प्रभु भुज करि कर सम दसकंधर।।

सो भुज कंठ कि तव असि घोरा।

सुनु सठ अस प्रवान पन मोरा।।

 

चंद्रहास हरु मम परितापं।

रघुपति बिरह अनल संजातं।।

सीतल निसित बहसि बर धारा।

कह सीता हरु मम दुख भारा।।

 

सुनत बचन पुनि मारन धावा।

मयतनयाँ कहि नीति बुझावा।।

कहेसि सकल निसिचरन्हि बोलाई।

सीतहि बहु बिधि त्रासहु जाई।।

 

मास दिवस महुँ कहा माना।

तौ मैं मारबि काढ़ि कृपाना।।

 

दोहा-

भवन गयउ दसकंधन इहाँ पिसाचिनि बृंद।

सीतहि त्रास देखावहिं धरहिं रूप बहु मंद।।10।।

 

त्रिजटा नाम राच्छसी एका।

राम चरन रति निपुन बिबेका।।

सबन्हौ बोलि सुनाएसि सपना।

सीतहि सेइ करहु हित अपना।।

 

सपनें बानर लंका जारी।

जातुधान सेना सब मारी।।

खर आरूढ़ नगन दससीसा।

मुंडित सिर खंडित भुज बीसा।।

 

एहि बिधि सो दच्छिन दिसि जाई।

लंका मनहुँ बिभीषन पाई।।

नगर फिरी रघुबीर दोहाई।

तब प्रभु सीता बोलि पठाई।।

 

यह सपना मैं कहउँ पुकारी।

होइहि सत्य गएँ दिन चारी।।

तासु बचन सुनि ते सब डरीं।

जनकसुता के चरनन्हि परीं।।

 

दोहा-

जहँ तहँ गईं सकल तब सीता कर मन सोच।

मास दिवस बीतें मोहि मारिहि निसिचर पोच।।11।।

 

त्रिजटा सन बोलीं कर जोरी।

मातु बिपति संगिनि तैं मोरी।।

तजौं देह करु बेगि उपाई।

दुसह बिरहु अब नहिं सहि जाई।।

 

आनि काठ रचु चिता बनाई।

मातु अनल पुनि देहि लगाई।।

सत्य करहि मम प्रीति सयानी।

सुनै को श्रवन सूल सम बानी।।

 

सुनत बचन पद गहि समुझाएसि।

प्रभु प्रताप बल सुजसु सुनाएसि।।

निसि अनल मिल सुनु सुकुमारी।

अस कहि सो निज भवन सिधारी।।

 

कह सीता बिधि भा प्रतिकूला।

मिलिहि पावक मिटिहि सूला।।

देखिअत प्रगट गगन अंगारा।

अवनि आवत एकउ तारा।।

 

पावकमय ससि स्रवत आगी।

मानहुं मोहि जानि हतभागी।।

सुनहि बिनय मम बिटप असोका।

सत्य नाम करु हरु मम सोका।।

 

नूतन किसलय अनल समाना।

देहि अगिनि जनि करहि निदाना।।

देखि परम बिरहाकुल सीता।

सो छन कपिहि कलप सम बीता।।

 

सोरठा-

कपि करि हृदयँ बिचार दीन्हि मुद्रिका डारि तब।

जनु असोक अंगार दीन्ह हरषि उठि कर गहेउ।।12।।

 

तब देखी मुद्रिका मनोहर।

राम नाम अंकित अति सुंदर।।

चकित चितव मुदरी पहिचानी।

हरष बिषाद हृदयँ अकुलानी।।

 

जीति को सकइ अजय रघुराई।

माया तें असि रचि नहिं जाई।।

सीमा मन बिचार कर नाना।

मधुर बचन बोलेउ हनुमाना।।

 

रामचंद गुन बरनैं लागा।

सुनतहिं सीता कर दुख भागा।।

लागीं सुनैं श्रवन मन लाई।

आदिहु तें सब कथा सुनाई।।

 

श्रवनामृत जेहिं कथा सुहाई।

कही सो प्रगट होति किन भाई।।

तब हनुमंत निकट चलि गयऊ।

फिरि बैठी मन बिसमय भयऊ।।

 

राम दूत मैं मातु जानकी।

सत्य सपथ करुनानिधान की।।

यह मुद्रिका मातु मैं आनी।

दीन्हि राम तुम्ह कहँ सहिदानी।।

 

नर बानरहि संग कहु कैसें।

कही कथा भइ संगति जैसें।

 

दोहा-

कपि के बचन सप्रेम सुनि उपजा मन बिस्वास।

जाना मन क्रम बचन यह कृपासिंधु कर दास।।13।।

 

हरिजन जानि प्रीति अति गाढ़ी।

सजल नयन पुलकावलि बाढ़ी।।

बूड़त बिरह जलधि हनुमाना।

भयहु तात मो कहुँ जलजाना।।

 

अब कहु कुसल जाउँ बलिहारी।

अनुज सहित सुख भवन खरारी।।

कोमलचित कृपाल रघुराई।

कपि केहि हेतु धरी निठुराई।।

 

सहज बानि सेवक सुखदायक।

कबहुँक सुरति करत रघुनायक।।

कबहुँ नयन मम सीतल ताता।

होइहहिं निरखि स्याम मृदु गाता।।

 

बचनु आव नयन भरे बारी।

अहह नाथ हौं निपट बिसारी।।

देखि परम बिरहाकुल सीता।

बोला कपि मृदु बचन बिनीता।।

 

मातु कुसल प्रभु अनुज समेता।

तव दुख दुखी सुकृपा निकेता।।

जनि जननी मानहु जियँ ऊना।

तुम्ह ते प्रेम राम कें दूना।।

 

दोहा

रघुपति कर संदेसु अब सुनु जननी धरि धीर।

अस कहि कपि गदगद भयउ भरे बिलोचन नीर।।14।।

 

कहेउ राम बियोग तव सीता।

मो कहुँ सकल भए बिपरीता।।

नव तरु किसलय मनहुँ कृसानू।

कालनिसा सम निसि ससि भानू।।

 

कुबलय बिपिन कुंत बन सरिसा।

बारिद तपत तेल जनु बरिसा।।

जे हित रहे करत तेइ पीरा।

उरग स्वास सम त्रिबिध समीरा।।

 

कहेहू तें कछु दुख घटि होई।

काहि कहौं यह जान कोई।।

तत्व प्रेम कर मम अरु तोरा।

जानत प्रिया एकु मनु मोरा।।

 

सो मनु सदा रहत तोहि पाहीं।

जानु प्रीति रसु एतनेहि माहीं।।

प्रभु संदेसु सुनत बैदेही।

मगन प्रेम तन सुधि नहिं तेही।।

 

कह कपि हृदयँ धीर धरु माता।

सुमिरु राम सेवक सुखदाता।।

उर आनहु रघुपति प्रभुताई।

सुनि मम बचन तजहु कदराई।।

 

दोहा-

निसिचर निकर पतंग सम रघुपति बान कृसानु।

जननी हृदयँ धीर धरु जरे निसाचर जानु।।15।।

 

जौं रघुबीर होति सुधि पाई।

करते नहिं बिलंबु रघुराई।।

राम बान रबि उएँ जानकी।

तम बरूथ कहँ जातुधान की।।

 

अबहिं मातु मैं जाउँ लवाई।

प्रभु आयसु नहिं राम दोहाई।।

कछुक दिवस जननी धरु धीरा।

कपिन्ह सहित अइहहिं रघुबीरा।।

 

निसिचर मारि तोहि लै जैहहिं।

तिहुँ पुर नारदादि जसु गैहहिं।।

हैं सुत कपि सब तुम्हहि समाना।

जातुधान अति भट बलवाना।।

 

मोरें हृदय परम संदेहा।

सुनि कपि प्रगट कीन्हि निज देहा।।

कनक भूधराकार सरीरा।

समर भयंकर अतिबल बीरा।।

 

सीता मन भरोस तब भयऊ।

पुनि लघु रूप पवनसुत लयऊ।।

 

दोहा-

सुनु माता साखामृग नहिं बल बुद्धि बिसाल।

प्रभु प्रताप तें गरुड़हि खाइ परम लघु ब्याल।।16।।

 

मन संतोष सुनत कपि बानी।

भगति प्रताप तेज बल सानी।।

आसिष दीन्हि रामप्रिय जाना।

होहु तात बल सील निधाना।।

 

अजर अमर गुननिधि सुत होहू।

करहुँ बहुत रघुनायक छोहू।।

करहुँ कृपा प्रभु अस सुनि काना।

निर्भर प्रेम मगन हनुमाना।।

 

बार बार नाएसि पद सीसा।

बोला बचन जोरि कर कीसा।।

अब कृतकृत्य भयउँ मैं माता।

आसिष तव अमोघ बिख्याता।।

 

सुनहु मातु मोहि अतिसय भूखा।

लागि देखि सुंदर फल रूखा।।

सुनु सुत करहिं बिपिन रखवारी।

परम सुभट रजनीचर भारी।।

 

तिन्ह कर भय माता मोहि नाहीं।

जौं तुम्ह सुख मानहु मन माहीं।।

 

दोहा-

देखि बुद्धि बल निपुन कपि कहेउ जानकीं जाहु।

रघुपति चरन हृदयँ धरि तात मधुर फल खाहु।।17।।

 

चलेउ नाइ सिरु पैठेउ बागा।

फल खाएसि तरु तोरैं लागा।।

रहे तहाँ बहु भट रखवारे।

कछु मारेसि कछु जाइ पुकारे।।

 

नाथ एक आवा कपि भारी।

तेहिं असोक बाटिका उजारी।।

खाएसि फल अरु बिटप उपारे।

रच्छक मर्दि मर्दि महि डारे।।

 

सुनि रावन पठए भट नाना।

तिन्हहि देखि गर्जेउ हनुमाना।।

सब रजनीचर कपि संघारे।

गए पुकारत कछु अधमारे।।

 

पुनि पठयउ तेहिं अच्छकुमारा।

चला संग लै सुभट अपारा।।

आवत देखि बिटप गहि तर्जा।

ताहि निपाति महाधुनि गर्जा।।

 

दोहा-

कछु मोरिस कछु मर्देसि कछु मिलएसि धरि धूरि।

कछु पुनि जाइ पुकारे प्रभु मर्कट बल भूरि।।18।।

 

सुनि सुत बध लंकेस रिसाना।

पठएसि मेघनाद बलवाना।।

मारसि जनि सुत बाँधेसु ताही।

देखिअ कपिहि कहाँ कर आही।।

 

चला इंद्रजित अतुलित जोधा।

बंधु निधन सुनि उपजा क्रोधा।।

कपि देखा दारुन भट आवा।

कटकटाइ गर्जा अरु धावा।।

 

अति बिसाल तरु एक उपारा।

बिरथ कीन्ह लंकेस कुमारा।।

रहे महाभट ताके संगा।

गहि गहि कपि मर्दइ निज अंगा।।

 

तिन्हहि निपाति ताहि सन बाजा।

भिरे जुगल मानहुं गजराजा।।

मुठिका मारि चढ़ा तरु जाई।

ताहि एक छन मुरुछा आई।।

 

उठि बहोरि कीन्हिसि बहु माया।

जीति जाइ प्रभंजन जाया।।

 

दोहा-

ब्रह्म अस्त्र तेहि सांधा कपि मन कीन्ह बिचार।

जौं ब्रह्मसर मानउँ महिमा मिटइ अपार।।19।।

 

ब्रह्मबान कपि कहुं तेहिं मारा।

परतिहुं बार कटकु संघारा।।

तेहिं देख कपि मुरुछित भयऊ।

नागपास बांधेसि लै गयउ।।

 

जासु नाम जपि सुनहु भवानी।

भव बंधन काटहिं नर ग्यानी।।

तासु दूत कि बंध तरु आवा।

प्रभु कारज लगि कपिहिं बंधावा।।

 

कपि बंधन सुनि निसिचर धाए।

कौतुक लागि सभाँ सब आए।।

दसमुख सभा दीखि कपि जाई।

कहि जाइ कछु अति प्रभुताई।।

 

कर जोरें सुर दिसिप बिनीता।

भृकुटि बिलोकत सकल सभीता।।

देखि प्रताप कपि मन संका।

जिमि अहिगन महुँ गरुड़ असंका।।

 

दोहा-

कपिहि बिलोकि दसानन बिहसा कहि दुर्बाद।

सुत बध सुरति कीन्हि पुनि उपजा हृदयँ बिषाद।।20।।

 

कह लंकेस कवन तैं कीसा।

केहि कें बल घालेहि बन खीसा।।

की धौं श्रवन सुनेहि नहिं मोही।

देखउँ अति असंक सठ तोही।।

 

मारे निसिचर केहिं अपराधा।

कहु सठ तोहि प्रान कइ बाधा।।

सुनु रावन ब्रह्मांड निकाया।

पाइ जासु बल बिरचति माया।।

 

जाकें बल बिरंचि हरि ईसा।

पालत सृजत हरत दससीसा।।

जा बल सीस धरत सहसानन।

अंडकोस समेत गिरि कानन।।

 

धरइ जो बिबिध देह सुरत्राता।

तुम्ह से सठन्ह सिखावनु दाता।।

हर कोदंड कठिन जेहिं भंजा।

तेहि समेत नृप दल मद गंजा।।

 

खर दूषन त्रिसिरा अरु बाली।

बधे सकल अतुलित बलसाली।।

 

दोहा-

जाके बल लवलेस तें जितेहु चराचर झारि।

तासु दूत मैं जा करि हरि आनेहु प्रिय नारि।।21।।

 

जानउँ मैं तुम्हारि प्रभुताई।

सहसबाहु सन परी लराई।।

समर बालि सन करि जसु पावा।

सुनि कपि बचन बिहसि बिहरावा।।

 

खायउँ फल प्रभु लागी भूँखा।

कपि सुभाव तें तोरेउँ रूखा।।

सब कें देह परम प्रिय स्वामी।

मारहिं मोहि कुमारग गामी।।

 

जिन्ह मोहि मारा ते मैं मारे।

तेहि पर बाँधेउँ तनयँ तुम्हारे।।

मोहि कछु बाँधे कइ लाजा।

कीन्ह चहउँ निज प्रभु कर काजा।।

 

बिनती करउँ जोरि कर रावन।

सुनहु मान तजि मोर सिखावन।।

देखहु तुम्ह निज कुलहि बिचारी।

भ्रम तजि भजहु भगत भय हारी।।

 

जाकें डर अति काल डेराई।

जो सुर असुर चराचर खाई।।

तासों बयरु कबहुँ नहिं कीजै।

मोरे कहें जानकी दीजै।।

 

दोहा-

प्रनतपाल रघुनायक करुना सिंधु खरारि।

गएँ सरन प्रभु राखिहैं तव अपराध बिसारि।।22।।

 

राम चरन पंकज उर धरहू।

लंका अचल राजु तुम्ह करहू।।

रिषि पुलस्ति जसु बिमल मयंका।

तेहि ससि महुँ जनि होहु कलंका।।

 

राम नाम बिनु गिरा सोहा।

देखु बिचारि त्यागि मद मोहा।।

बसन हीन नहिं सोह सुरारी।

सब भूषन भूषित बर नारी।।

 

राम बिमुख संपति प्रभुताई।

जाइ रही पाई बिनु पाई।।

सजल मूल जिन्ह सरितन्ह नाहीं।

बरषि गएँ पुनि तबहिं सुखाहीं।।

 

सुनु दसकंठ कहउँ पन रोपी।

बिमुख राम त्राता नहिं कोपी।।

संकर सहस बिष्नु अज तोही।

सकहिं राखि राम कर द्रोही।।

 

दोहा-

मोहमूल बहु सूल प्रद त्यागहु तम अभिमान।

भजहु राम रघुनायक कृपा सिंधु भगवान।।23।।


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