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रामायण चौपाई | रामचरितमानस दोहा 6-10 | रामायण चौपाई अर्थ सहित | बालकाण्ड चौपाई

रामायण बालकाण्ड चौपाई अर्थ सहित दोहा 6–10 

रामायण बालकाण्ड चौपाई 


दोहा-
जड़ चेतन गुन दोषमय बिस्व कीन्ह करतार।
       संत हंस गुन गहहिं पय परिहरि बारि बिकार।। 6।।
अर्थ- विधाता ने इस जड़-चेतन विश्व को गुण-दोषमय रचा है, किन्तु संतरूपी हंस दोषरूपी जल को छोड़कर गुणरूपी दूध को ही ग्रहण करते हैं।

अस बिबेक जब देइ बिधाता। 
तब तजि दोष गुनहिं मनु राता।।
काल सुभाउ करम बरिआईं।
 भलेउ प्रकृति बस चुकइ भलाईं।।
अर्थ- विधाता जब इस प्रकार का (हंस का-सा) विवेक देते हैं, तब दोषों को छोड़कर मन गुणों में अनुरक्त होता है। काल-स्वभाव और कर्म की प्रबलता से भले लोग (साधु) भी माया के वश में होकर कभी-कभी भलाई से चूक जाते हैं।

सो सुधारि हरिजन जिमि लेहीं। 
दलि मुख दोष बिमल जुस देहीं।।
खलउ करहिं भल पाइ सुसंगू।
मिटइ न मलिन सुभाउ अभंगू।
अर्थ- भगवान के भक्त जैसे उस चूक को सुधार लेते हैं और दुःख-दोषों को मिटाकर निर्मल यश देते हैं, वैसे ही दुष्ट भी कभी-कभी उत्तम संग पाकर भलाई करते हैं; परंतु उनका भी भंग न होने वाला मलिन स्वभाव नहीं मिटता।

लखि सुबेष जब बंचक जेऊ। 
बेष प्रताप पूजिअहिं तेऊ।।
उघरहिं अंत न होइ निबाहू। 
कालनेमि जिमि रावन राहू।।
अर्थ- जो (वेषधारी) ठग हैं, उन्हें भी अच्छा (साधु का-सा) वेष बनाये देखकर वेष के प्रताप से जगत् पूजता है, परन्तु एक-न-एक दिन वे चौड़े आ ही जाते हैं, अंत तक उनका कपट नहीं निभता, जैसे कालनेमि, रावण और राहु का हाल हुआ।

किएहुँ कुबेषु साधु सनमानू। 
जिमि जग जामवंत हनुमानू।।
हानि कुसंग सुसंगति लाहू। 
लोकहुँ बेद बिदित सब काहू।।
अर्थ-  बुरा वेष बना लेने पर भी साधु का सम्मान ही होता है, जैसे जगत् में जाम्बवान् और हनुमान जी का हुआ। बुरे संग से हानि और अच्छे संग से लाभ होता है, यह बात लोक और वेद में है और सभी लोग इसको जानते हैं।

गगन चढ़इ रज पवन प्रसंगा।
कीचहिं मिलइ नीच जल संगा।।
साधु असाधु सदन सुक सारीं।
सुमिरहिं राम देहिं गनि गारीं।।
अर्थ- पवन के संग से धूल आकाश पर चढ़ जाती है और वही नीच (नीचे की ओर बहने वाले) जल के संग से कीचड़ में मिल जाती है। साधु के घर के तोता-मैना राम-राम सुमिरते हैं और असाधु के घर के तोता-मैना गिन-गिनकर गालियां देते हैं।

धूम कुसंगति कारिख होई।
लिखिअ पुरान मंजु मसि सोई।।
सोइ जल अनल अनिल संघाता।
होइ जलद जग जीवन दाता।।
अर्थ- कुसंग के कारण धुआँ कालिख कहलाता है, वही धुआं (सुसंग से) सुन्दर स्याही होकर पुराण लिखने के काम में आता है। और वही धुआं, जल, अग्नि और पवन के संग से बादल होकर जगत् को जीवन देने वाला बन जाता है।

दोहा-
ग्रह भेषज जल पवन पट पाइ कुजोग सुजोग ।
        होहिं कुबस्तु जग लखहिं सुलच्छन लोग ।। 7 (क)।।
अर्थ- ग्रह, ओषधि, जल, वायु और वस्त्र-ये सब भी कुसंग और सुसंग पाकर संसार में बुरे और भले पदार्थ हो जाते हैं। चतुर एवं विचारशील पुरुष ही इस बात को जान पाते हैं।

सम प्रकास तम पाख दुहुं नाम भेद बिधि कीन्ह।
          ससि सोषक पोषक समुझि जग जस अपजस दीन्ह।। 7(ख)।।
अर्थ- महीने के दोनों पखवाड़ों में उजियाला और अंधेरा समान ही रहता है, परंतु विधाता ने इनके नाम में भेद कर दिया है। (एक का नाम शुक्ल और दूसरे का नाम कृष्ण रख दिया)। एक को चन्द्रमा का बढ़ाने वाला और दूसरे को उसका घटाने वाला समझकर जगत् ने एक को सुयश और दूसरे को अपयश दे दिया।

जड़ चेतन जग जीव जत सकल राममय जानि।
बंदउँ सब के पद कमल सदा जोरि जुग पानि।।7(ग)।।
अर्थ- जगत् में जितने जड़ और चेतन जीव हैं, सबको राममय जानकर मैं उन सबके चरण कमलों की सदा दोनों हाथ जोड़कर वंदना करता हूं।

देव दनुज नर नाग खग प्रेत पितर गंधर्ब।
बंदउँ किंनर रजनिचर कृपा करहु सब सर्ब।।7(घ)।।
अर्थ- देवता, दैत्य, मनुष्य, नाग, पक्षी, प्रेत, पितर, किन्नर और निशाचर सबको मैं प्रणाम करता हूं। अब सब मुझ पर कृपा कीजिए।

आकर चारि लाख चौरासी।
जाति जीव जल थल नभ बासी।।
सीय राममय सब जग जानी।
करउँ प्रनाम जोरि जुग पानी।।
अर्थ- चौरासी लाख योनियों में चार प्रकार के (स्वेदज, अण्डज, उद्भिज्ज, जरायुज) जीव जल, पृथ्वी और आकाश में रहते हैं, उन सबसे भरे हुए इस सारे जगत् को श्रीसीताराममय जानकर मैं दोनों हाथ जोड़कर प्रणाता करता हूं।

जानि कृपाकर किंकर मोहू।
सब मिलि करहु छाड़ि छल छोहू।।
निज बुधि बल भरोस मोहि नाहीं।
तातें बिनय करउँ सब पाहीं।।
अर्थ- मुझको अपना दास जानकर कृपा की खान आप सब लोग मिलकर छल छोड़कर कृपा कीजिए। मुझे अपने बुद्धि-बल का भरोसा नहीं है, इसीलिए में सबसे विनती करता हूं।

करन चहउँ रघपुति गुन गाहा।
लघु मति मोरि चरित अवगाहा।।
सूझ न एकउ अंग उपाऊ।
मन मति रंक मनोरथ राऊ।।
अर्थ- मैं श्री रघुनाथजी के गुणों का वर्णन करना चाहता हूं, परंतु मेरी बुद्धि छोटी है और श्रीरामजी का चरित्र अथाह है। इसके लिए मुझे उपाय का एक भी अंग अर्थात् कुछ भी उपाय नहीं सूझता। मेरे मन और बुद्धि कंगाल हैं, किंतु मनोरथ राजा है।

मति अति नीच ऊँचि रुचि आछी।
चहिअ अमिअ जग जुरइ न छाछी।।
छमिहहिं सज्जन मोरि ढिठाई।
सुनिहहिं बालबचन मन लाई।।
अर्थ- मेरी बुद्धि तो अत्यंत नीची है और चाह बड़ी ऊँची है; चाह तो अमृत पाने की है, पर जगत् में जुड़ती छाछ भी नहीं। सज्जन मेरी ढिठाई को क्षमा करेंगे और मेरे बाल वचनों को मन लगाकर सुनेंगे।

जौं बालक कह तोतरि बाता।
सुनहिं मुदित मन पितु अरु माता।।
हँसिहहिं कूर कुटिल कुबिचारी।
जे पर दूषन भूषनधारी।।
अर्थ- जैसे बालक जब तोतले वचन बोलता है तो उसके माता-पिता उन्हें प्रसन्न मन से सुनते हैं। किन्तु क्रूर, कुटिल और बुरे विचारवाले लोग जो दूसरों के दोषों को ही भूषण रूप से धारण किये रहते हैं, वे हंसेंगे।

निज कबित्त केहि लाग न नीका।
सरस होउ अथवा अति फीका।।
जे पर भनिति सुनत हरषाहीं।
ते बर पुरुष बहुत जग नाहीं।।
अर्थ- रसीली हो या अत्यंत फीकी, अपनी कविता किसे अच्छी नहीं लगती? किन्तु जो दूसरे की रचना को सुनकर हर्षित होते हैं, ऐसे उत्तम पुरुष जगत् में बहुत नहीं हैं।

जग बहु नर सर सरि सम भाई।
जे निज बाढ़ि बढ़हिं जल पाई।।
सज्जन सकृत सिंधु सम कोई।
देखि पूर बिधु बाढ़इ जोई।।
अर्थ- हे भाई! जगत् में तालाबों और नदियों के समान मनुष्य ही अधिक हैं, जो जल पाकर अपनी ही बाढ़ से बढ़ते हैं (अर्थात् अपनी ही उन्नति से प्रसन्न होते हैं)। समुद्र-सा तो कोई एक विरला ही सज्जन होता है जो चन्द्रमा को पूर्ण देखकर (दूसरों का उत्कर्ष देखकर) उमड़ पड़ता है।

दोहा-
भाग छोट अभिलाषु बड़ करउँ एक बिस्वास।
पैहहिं सुख सुनि सुजन सब खल करिहहिं उपहास।। 8।।
अर्थ- मेरा भाग्य छोटा है और इच्छा बहुत बड़ी है, परन्तु मुझे एक विश्वास है कि इसे सुनकर सज्जन सभी सुख पावेंगे और दुष्ट हंसी उड़ावेंगे।

खल परिहास होइ हित मोरा।
काक कहहिं कलकंठ कठोरा।।
हंसहिं बक दादुर चातकही।
हँसहिं मलिन खल बिमल बतकही।।
अर्थ- किंतु दुष्टों के हंसने से मेरा हित ही होगा। मधुर कंठवाली कोयल को कौए तो कठोर ही कहा करते हैं। जैसे बगुले हंस को और मेढक पपीहे को हंसते हैं, वैसे ही मलिन मनवाले दुष्ट निर्मल वाणी हो हंसते हैं।

कबित रसिक न राम पद नेहू।
तिन्ह कहँ सुखद हास रस एहू।।
भाषा भनिति भोरि मति मोरी।
हँसिबे जोग हँसें नहिं खोरी।।
अर्थ- जो न तो कविता के रसिक हैं और न जिनका श्रीरामचंद्र जी के चरणों में प्रेम है, उनके लिये भी यह कविता सुखद हास्यरस का काम देगी। प्रथम तो यह भाषा की रचना है, दूसरे मेरी बुद्धि भोली है, इससे यह हंसने के योग्य ही है, हंसने में उन्हें कोई दोष नहीं।

प्रभु पद प्रीति न सामुझि नीकी।
तिन्हहि कथा सुनि लागिहि फीकी।।
हरि हर पद रति मति न कुतरकी।
तिन्ह कहुँ मधुर कथा रघुबर की।।
अर्थ- जिन्हें न तो प्रभु के चरणों में प्रेम है, और न अच्छी समझ ही है, उनको यह कथा सुनने में फीकी लगेगी। जिनकी श्रीहरि (भगवान् विष्णु) और श्रीहर (भगवान् शिव) के चरणों में प्रीति है और जिनकी बुद्धि कुतर्क करने वाली नहीं है (जो श्रीहरि-हर में भेद की या ऊँच-नीच की कल्पना नहीं करते), उन्हें श्रीरघुनाथजी की यह कथा मीठी लगेगी।

राम भगति भूषित जियँ जानी।
सुनिहहिं सुजन सराहि सुबानी।।
कबि न होउँ नहिं बचन प्रबीनू।
सकल कला सब बिद्या हीनू।।
अर्थ- सज्जनगण इस कथा को अपने जीन में श्रीरामजीकी भक्ति से भूषित जानकर सुंदर वाणी से सराहना करते हुए सुनेंगे। मैं न तो कवि हूं, न वाक्य रचना में ही कुशल हूं, मैं तो सब कलाओं तथा सब विद्याओं से रहित हूं।

आखर अरथ अलंकृति नाना।
छंद प्रबंध अनेक बिधाना।।
भाव भेद रस भेद अपारा।
कबित दोष गुन बिबिध प्रकारा।।
अर्थ- नाना प्रकार के अक्षर, अर्थ और अलंकार, अनेक प्रकार की छंद रचना, भावों और रसों के अपार भेद और कविता के भाँति-भाँति के गुण-दोष होते हैं।

कबित बिबेक एक नहिं मोरें।
सत्य कहउँ लिखि कागद कोरें।।
अर्थ- इनमें से काव्यसंबंधी एक भी बात का ज्ञान मुझमें नहीं है, यह मैं कोरे कागज पर लिखकर (शपथपूर्वक) सत्य-सत्य कहता हूं।

दोहा-
भनिति मोरि सब गुन रहित बिस्व बिदित गुन एक।
सो बिचारि सुनिहहिं सुमति जिन्ह कें बिमल बिबेक।। 9।।
अर्थ- मेरी रचना सब गुणों से रहित है, इसमें बस, जगतप्रसिद्ध एक गुण है। उसे विचारकर अच्छी बुद्धिवाले पुरुष, जिनके निर्मल ज्ञान है, इसको सुनेंगे।

एहि महँ रघुपति नाम उदारा।
अति पावन पुरान श्रुति सारा।।
मंगल भवन अमंगल हारी।
उमा सहित जेहि जपत पुरारी।।
अर्थ- इसमें श्रीरघुनाथजी का उदार नाम है, जो अत्यंत पवित्रा हैं, वेद-पुराणों का सार है, कल्याण का भवन है और अमंगलों को हरने वाला है, जिसे पावर्तजी सहित भगवान् शिवजी सदा जपा करते हैं।

भनिति बिचित्र सुकबि कृत जोऊ।
राम नाम बिनु सोह न सोऊ।।
बिधुबदनी सब भाँति संवारी।
सोह न बसन बिना बर नारी।।
अर्थ- जो अच्छे कवि के द्वारा रची हुई बड़ी अनूठी कविता है, वह भी रामनाम के बिना शोभा नहीं पाती। जैसे चन्द्रमा के समान मुखवाली सुंदर स्त्री सब प्रकार से सुसज्जित होने पर भी वस्त्र के बिना शोभा नहीं पाती।

सब गुन रहित कुकबि कृत बानी।
राम नाम जस अंकित जानी।।
सादर कहहिं सुनहिं बुध ताही।
मधुकर सरिस संत गुनग्राही।।
अर्थ- इसके विपरीत, कुकवि की रची हुई सब गुणों से रहित कविता को भी, राम के नाम एवं यश से अंकित जानकर, बुद्धिमान् लोग आदरपूर्वक कहते और सुनते हैं; क्योंकि संतजन भौंरे की भाँति गुण ही को ग्रहण करने वाले होते हैं।


जदपि कबित रस एकउ नाहीं।
राम प्रताप प्रगट एहि माहीं।।
सोइ भरोस मोरें मन आवा।
केहिं न सुसंग बड़प्पनु पावा।।
अर्थ- यद्यपि मेरी इस रचना में  कविता का एक भी रस नहीं है, तथापि इसमें श्रीराम जी का प्रातप प्रकट है। मेरे मन में यही एक भरोसा है। भले संग से भला, किसने बड़प्पन नहीं पाया?

धूमउ तजइ सहज करुआई।
अगरु प्रसंग सुगंध बसाई।।
भनिति भदेस बस्तु भलि बरनी।
राम कथा जग मंगल करनी।।
अर्थ-  धुआं भी अगर के संग से सुगंधित होकर अपने स्वाभाविक कड़वेपन को छोड़ देता है। मेरी कविता अवश्य भद्दी है, परंतु इसमें जगत् का कल्याण करने वाली रामकथारूपी उत्तम वस्तु का वर्णन किया गया है। (इससे यह भी अच्छी ही समझी जायगी)

छंद-
मंगल करनि कलिमल हरनि तुलसी कथा रघुनाथ की।
गति कूर कबिता सरित की ज्यों सरित पावन पाथ की।।
प्रभु सुजस संगति भनिति भलि होइहि सुजन मन भावनी।
भव अंग भूमि मसान की सुमिरत सुहावनि पावनी।।
अर्थ- तुलसीदास जी कहते हैं कि श्रीरघुनाथजी की कथा कल्याण करने वाली और कलियुग के पापों को हरने वाली है। मेरी इस भद्दी कवितारूपी नदी की चाल पवित्र जलवाली नदी (गंगाजी) की चाल की भांति टेढ़ी है। प्रभु श्रीरघुनाथजी के सुंदर यश के संग से यह कविता सुंदर तथा सज्जनों के मन को भाने वाली हो जायगी। श्मशान की अपवित्र राख भी श्रीमहादेव जी के अंग के संग से सुहावनी लगती है और स्मरण करते ही पवित्रा करने वाली होती है।

दोहा-
प्रिय लागिहि अति सबहि मम भनिति राम जस संग।
दारु बिचारु कि करइ कोउ बंदिअ मलय प्रसंग।। 10(क)।।
अर्थ- श्रीराम जी के यश के संग से मेरी कविता सभी को अत्यंत प्रिय लगेगी, जैसे मलय पर्वत के संग से काष्ठमात्र (चंदन बनकर) वंदनीय हो जाता है, फिर क्या कोई काठ (की तुच्छता) का विचार करता है?

स्याम सुरभि पय बिसद अति गुनद करहिं सब पान।
गिरा ग्राम्य सिय राम जस गावहिं सुनहिं सुजान।। 10(ख)।।
अर्थ- श्यामा गौ काली होने पर भी उसका दूध उज्जवल और बहुत गुणकारी होता है। यही समझकर सब लोग उसे पीते हैं। इसी तरह गंवारू भाषा में होने पर भी श्रीसीता-रामजी के यश को बुद्धिमान लोग बड़ चाव से गाते और सुनते हैं।

मनि मानिक मुकुता छबि जैसी। 
अहि गिरि गज सिर सोह न तैसी।।
नृप किरीट तरुनी तनु पाई। 
लहहिं सकल सोभा अधिकाई।।
अर्थ- मणि, माणिक और मोती की जैसी सुंदर छवि है, वह सांप, पर्वत और हाथी के मस्तकार वैसी शोभा नहीं पाती। राजा के मुकुट और नवयुवती के स्त्राी के शरीर को पाकर ही ये सब अधिक शोभा को प्राप्त होते हैं।

तैसेहिं सुकबि कबित बुध कहहीं। 
उपजहिं अनत अनत छबि लहहीं।।
भगति हेतु बिधि भवन बिहाई।
सुमिरत सारद आवति धाई।।
अर्थ- इसी तरह, बुद्धिमान लोग कहते हैं कि सुकवि की कविता भी उत्पन्न और कहीं होती है और शोभा अन्यत्र कहीं पाती है (अर्थात् कवि की वाणी से उत्पन्न हुई कविता वहां शोभा पाती है जहां उसका विचार, प्रचार तथा उसमें कथित आदर्श का ग्रहण और अनुसरण होता है)। कवि के स्मण करते ही उसकी भक्ति के कारण सरस्वती जी ब्रह्मलोक को छोड़कर दौड़ी आती हैं।

राम चरित सर बिनु अन्हवाएँ। 
सो श्रम जाइ न कोटि उपाएँ।।
कबि कोबिद अस हृदयँ बिचारी। 
गावहिं हरि जस कलि मल हारी।।
अर्थ- सरस्वती जी की दौड़ी आने की वह थकावट रामचरितरूपी सरोवर में उन्हें नहलाये बिना दूसरे करोड़ों उपायों से भी दूर नहीं होती। कवि और पंडित अपने हृदय में ऐसा विचारकर कलियुग के पापों को हरने वाले श्रीहरि के यश का ही गान करते हैं।

कीन्हें प्राकृत जन गुन गाना।
सिर धुनि गिरा लगत पछिताना।।
हृदय सिंधु मति सीप समाना। 
स्वाति सारदा कहहिं सुजाना।।
अर्थ- संसारी मनुष्यों का गुणगान करने से सरस्वती जी सिर धुनकर पछताने लगती हैं (कि मैं क्यों इसके बुलाने पर आयी)। बुद्धिमान लोग हृदय को समुद्र, बुद्धि को सीप और सरस्वती को स्वाति नक्षत्र के समान कहते हैं।

जौं बरषइ बर बारि बिचारू। 
होहिं कबित मुकुतामनि चारू।।
अर्थ- इसमें यदि श्रेष्ठ विचार रूपी जल बरसता है तो मुक्तामणि के समान सुंदर कविता होती है।

राम चरित सर बिनु अन्हवाएँ।
सो श्रम जाइ कोटि उपाएँ।।
कबि कोबिद अस हृदयँ बिचारी।
गावहिं हरि जस कलि मल हारी।।

अर्थ- 

कीन्हें प्राकृत जन गुन गाना।
सिर धुनि गिरा लगत पछिताना।।
हृदय सिंधु मति सीप समाना।
स्वाति सारदा कहहिं सुजाना।

अर्थ- 

जौं बरषइ बर बारि बिचारू।
होहिं कबित मुकुतामनि चारू।।

अर्थ- 




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