संपूर्ण सुंदरकाण्ड चौपाई अर्थ सहित इन हिंदी , Sampoorn Sundarkand chaupai Arth Sahit in hindi , Ramayan chaupai
संपूर्ण सुंदरकाण्ड चौपाई अर्थ सहित (दोहा 1-4)
श्लोक
शान्तं शाश्वतमप्रमेयमनघं निर्वाणशान्तिप्रदं
ब्रह्माशम्भुफणीन्द्रसेव्यमनिशं वेदान्तवेद्यं विभुम्।
रामाख्यं जगदीश्वरं सुरगुरुं मायामनुष्यं हरिं
वन्देऽहं करुणाकरं रघुवरं भूपालचूडामणिम्।।1।।
अर्थ-शान्त, सनातन, अप्रमेय (प्रमाणों से परे), निष्पाप, मोक्षरूप परमशांति देने वाले, ब्रह्मा, शंभु और शेष जी से निरंतर सेवित, वेदांत के द्वारा जानने योग्य, सर्वव्यापक, देवताओं में सबसे बड़े, माया से मनुष्य रूप में दिखने वाले, समस्त पापों को हरने वाले, करुणा की खान, रघुकुल में श्रेष्ठ तथा राजाओं के शिरोमणि, राम कहलाने वाले जगदीश्वर की मैं वंदना करता हूं।।1।।
नान्या स्पृहा रघुपते हृदयेऽस्मदीये
सत्यं वदामि च भवनखिलान्तरात्मा।
भक्तिं प्रयच्छ रघुपुंगव निर्भरां मे
कामादिदोषरहितं कुरु मानसं च।।2।।
अर्थ-हे रघुनाथ जी! मैं सत्य कहता हूँ, और फिर आप सबके अंतरात्मा ही हैं (सब जाने ही हैं) कि मेरे हृदय में दूसरी कोई इच्छा नहीं है। हे रघुकुलश्रेष्ठ! मुझे अपनी निर्भरा (पूर्ण) भक्ति दीजिये और मेरे मन को काम आदि दोषों से रहित कीजिए।।2।।
अतुलितबलधामं हेमशैलाभदेहं
दनुजवनकृशानुं ज्ञानिनामग्रगण्यम्।
सकलगुणनिधानं वानराणामधीशं
रघुपतिप्रियभक्तं वातजातं नमामि।।3।।
अर्थ-अतुल बल के धाम, सोने के पर्वत (सुमेरु) के समान कान्तियुक्त शरीर वाले, दैत्यरूपी वन (को ध्वंस करने) के लिये अग्नि रूप, ज्ञानियों में अग्रगण्य, संपूर्ण गुणों के निधान, वानरों के स्वामी, श्रीरघुनाथ जी के प्रिय भक्त पवनपुत्र श्री हनुमान जी को मैं प्रणाम करता हूं।।3।।
जामवंत के बचन सुहाए।
सुनि हनुमंत हृदय अति भाए।।
तब लगि मोहि परिखेहु तुम्ह भाई।
सहि दुख कंद मूल फल खाई।।
अर्थ-जाम्बवान् के सुंदर वचन सुनकर हनुमान जी के हृदय को बहुत ही भाये। (वे बोले-) हे भाई्! तुम लोग दुःख सहकर, कंद-मूल-फल खाकर तब तक मेरी राह देखना।
जब लगि आवौं सीतहि देखी।
होइहि काजु मोहि हरष बिसेषी।।
यह कहि नाइ सबन्हि कहुं माथा।
चलेउ हरषि हियं धरि रघुनाथा।।
अर्थ-जब तक मैं सीता जी को देखकर (लौट) न आऊँ। काम अवश्य होगा, क्योंकि मुझे बहुत ही हर्ष हो रहा है। यह कहकर और सबको मस्तक नवाकर तथा हृदय में श्रीरघुनाथ जी को धारण करके हनुमान जी हर्षित होकर चले।
सिंधु तीर एक भूधर सुंदर।
कौतुक कूदि चढ़ेउ ता ऊपर।।
बार बार रघुबीर संभारी।
तरकेउ पवनतनय बल भारी।।
अर्थ-समुद्र के तीर पर एक सुंदर पर्वत था। हनुमान जी खेल से ही (अनायास ही) कूदकर उसके ऊपर जा चढ़े और बार-बार रघुवीर का स्मरण करके अत्यंत बलवान् हनुमान जी उस पर से बड़े वेग से उछले।
जेहिं गिरि चरन देइ हनुमंता।
चलेउ सो गा पाताल तुरंता।।
जिमि अमोघ रघुपति कर बाना।
एही भांति चलेउ हनुमाना।।
अर्थ-जिस पर्वत पर हनुमान जी पैर रखकर चले (जिस पर से वे उछले), वह तुरंत ही पाताल में धँस गया। जैसे श्री रघुनाथ जी का अमोघ बाण चलता है, उसी तरह हनुमान् जी चले।
जलनिधि रघुपति दूत बिचारी।
तैं मैनाक होहि श्रमहारी।।
अर्थ-समुद्र ने उन्हें श्रीरघुनाथ जी का दूत समझकर मैनाक पर्वत से कहा कि हे मैनाक! तू इनकी थकावट दूर करने वाला हो अर्थात् अपने ऊपर इन्हें विश्राम दें।
दोहा-
हनूमान तेहि परसा कर पुनि कीन्ह प्रनाम।
राम काजु कीन्हें बिनु मोहि कहां बिश्राम।।1।।
अर्थ-हनुमानजी ने उसे हाथ से छू दिया, फिर प्रणाम करके कहा-भाई! श्री रामचंद्र जी का काम किये बिना मुझे विश्राम कहाँ?।।1।।
जात पवनसुत देवन्ह देखा।
जानैं कहुं बल बुद्धि बिसेषा।।
सुरसा नाम अहिन्ह कै माता।
पठइन्हि आइ कही तेहिं बाता।।
अर्थ-देवताओं ने पवनपुत्र हनुमान जी को जाते हुए देखा। उनकी विशेष बल-बुद्धि को जानने के लिये (परीक्षार्थ) उन्होंने सुरसा नामक सर्पों की माता को भेजा, उसने आकर हनुमान जी से यह बात कही-।
आजु सुरन्ह मोहि दीन्ह अहारा।
सुनत बचन कह पवनकुमारा।।
राम काजु करि फिरि में आवौं।
सीता कइ सुधि प्रभुहि सुनावौं।।
अर्थ-आज देवताओं ने मुझे भोजन दिया है। यह वचन सुनकर पवनकुमार हनुमान जी ने कहा-श्रीराम जी का कार्य करके मैं लौट आऊँ और सीता जी की खबर प्रभु श्री राम को सुना दूं।
तब तव बदन पैठिहउं आई।
सत्य कहउं मोहि जान दे माई।।
कवनेहुं जतन देइ नहिं जाना।
ग्रससि न मोहि कहेउ हनुमाना।
अर्थ-तब मैं आकर तुम्हारे मुँह में घुस जाऊँगा (तब तुम मुझे खा लेना)। हे माता! मैं सत्य कहता हूँ, अभी मुझे जाने दें। जब किसी भी भी उपाय से उसने हनुमान जी को जाने नहीं दिया, तब हनुमान जी ने कहा-तो फिर मुझे खा न ले।
जोजन भरि तेहिं बदनु पसारा।
कपि तनु कीन्ह दुगुन बिस्तारा।।
सोरह जोजन मुख तेहिं ठयऊ।
तुरत पवनसुत बत्तिस भयऊ।।
अर्थ-उसने योजनभर (चार कोस में) मुंह फैलाया। तब हनुमान जी ने अपने शरीर को उससे दूना बढ़ा लिया। उसने सोलह योजन का मुख कर लिया। हनुमान जी तुरंत ही बत्तीस योजन के हो गये।
जस जस सुरसा बदनु बढ़ावा।
तासु दून कपि रूप देखावा।।
सत जोजन जेहिं आनन कीन्हा।
अति लघु रूप पवनसुत लीन्हा।।
अर्थ-जैसे-जैसे सुरसा मुख का विस्तार बढ़ाती थी, हनुमान जी भी उसका दूना रूप दिखलाते थे। उसने सौ योजन (चार सौ कोस का) मुख किया। तब हनुमान जी ने बहुत ही छोटा रूप धारण कर लिया।
बदन पइठि पुनि बाहेर आवा।
मांगा बिदा ताहि सिरू नावा।।
मोहि सुरन्ह जेहि लागि पठावा।
बुधि बल मरमु तोर मैं पावा।।
अर्थ-और वे उसके मुख में घुसकर (तुरंत) फिर बाहर निकल आये और उसे सिर नवाकर विदा मांगन लगे। (उसने कहा-) मैंने तुम्हारे बुद्धि-बल का भेद पा लिया, जिसके लिये देवताओं ने मुझे भेजा था। ।
दोहा-
राम काजु सबु करिहहु तुम्ह बल बुद्धि निधान।
आसिष देइ गई सो हरषि चलेउ हनुमान।।2।।
अर्थ-तुम श्री रामचंद्र जी का सब कार्य करोगे, क्योंकि तुम बल-बुद्धि के भंडार हो। यह आशीर्वाद देकर वह चली गयी, तब हनुमान जी हर्षित होकर चले।।2।।
निसिचरि एक सिंधु महुं रहई।
करि माया नभु के खग गहई।
जीव जंतु ते गगन उड़ाहीं।
जल बिलोकि तिन्ह कै परिछाहीं।
अर्थ-समुद्र में एक राक्षसी रहती थी। वह माया करके आकाश में उड़ते हुए पक्षियों को पकड़ लेती थी। आकाश में जो जीव-जंतु उड़ा करते थे, वह जल में उनकी परछाईं देखकर।
गहइ छाहं सक सो न उड़ाई।
एहि बिधि सदा गगनचर खाई।।
सोइ छल हनूमान कहं कीन्हा।
तासु कपटु कपि तुरतहिं चीन्हा।।
अर्थ-उस परछाईं को पकड़ लेती थी, जिससे वे उड़ नहीं सकते थे और जल में गिर पड़ते थे। इस प्रकार वह सदा आकाश में उड़ने वाले जीवों को खाया करती थी। उसने वही छल हनुमान जी से भी किया। हनुमान जी ने तुरंत ही उसका पकट पहचान लिया।
ताहि मारि मारुतसुत बीरा।
बारिधि पार गयउ मतिधीरा।।
तहां जाइ देखी बन सोभा।
गुंजत चंचरीक मधु लोभा।।
अर्थ-पवनपुत्र धीरबुद्धि वीर श्री हनुमान जी उसको मारकर समुद्र के पार गये। वहां जाकर उन्होंने वन की शोभा देखी। मधु अर्थात् पुष्परस के लोभ से भौंरे गुंजार कर रहे थे।
नाना तरु फल फूल सुहाए।
खग मृग बृंद देखि मन भाए।।
सैल बिसाल देख एक आगें।
ता पर धाइ चढ़ेउ भय त्यागें।।
अर्थ-अनेकों प्रकार के वृक्ष फल-फूल से शोभित हैं। पक्षी और पशुओं के समूह को देखकर तो वे मन में बहुत ही प्रसन्न हुए। सामने एक विशाल पर्वत देखकर हनुमान जी भय त्यागकर उस पर दौड़ कर जा चढ़े।
उमा न कछु कपि कै अधिकाई।
प्रभु प्रताप जो कालहि खाई।।
गिरि पर चढ़ि लंका तेहिं देखी।
कहि न जाइ अति दुर्ग बिसेषी।।
अर्थ-शिव जी कहते हैं-हे उमा! इसमें वानर हनुमान की कुछ बड़ाई नहीं है। यह प्रभु का प्रताप है, जो काल को भी खा जाता है। पर्वत पर चढ़कर उन्होंने लंका देखी। बहुत ही बड़ा किला है, कुछ कहा नहीं जाता।
अति उतंग जलनिधि चहु पासा।
कनक कोट कर परम प्रकासा।।
अर्थ-वह अत्यंत ऊँचा है, उसके चारों ओर समुद्र है। सोने के परकोर्ट (चहारदीवारी) का परम प्रकाश हो रहा है।
छंद-
कनक कोट बिचित्र मनि कृत सुंदरायतना घना।
चउहट्ट हट्ट सुबट्ट बीथीं चारु पुर बहु बिधि बना।।
गज बाजि खच्चर निकर पदचर रथ बरुथन्हि को गनै।
बहुरूप निसिचर जूथ अतिबल सेन बरनत नहिं बनै।।
अर्थ-विचित्र मणियों से जड़ा हुआ सोने का परकोटा है, उसके अंदर बहुत-से सुंदर-सुंदर घर हैं। चौराहे, बाजार, सुंदर मार्ग और गलियां हैं, सुंदर नगर बहुत प्रकार से सजा हुआ है। हाथी, घोड़े, खच्चरों के समूह तथा पैदल और रथों के समूहों को कौन गिन सकता है। अनेक रूपों के राक्षसों के दल हैं, उनकी अत्यंत बलवती सेना वर्णन करते नहीं बनती।
बन बाग उपबन बाटिका सर कूप बापीं सोहहीं।
नर नाग सुर गंधर्ब कन्या रूप मुनि मन मोहहीं।।
कहुं माल देह बिसाल सैल समान अतिबल गर्जहीं।
नाना आखरेन्ह भिरहिं बहुबिधि एक एकन्ह तर्जहीं।।
अर्थ-वन, बाग, उपवन (बगीचे), फुलवाड़ी, तालाब, कुएं और बावलियां सुशोभित हैं। मनुष्य, नाग, देवताओं और गंधर्वों की कन्याएं अपने सौंदर्य से मुनियों के भी मनों को मोहे लेती हैं। कहीं पर्वत के समान विशाल शरीर वाले बड़े ही बलवान् मल्ल (पहलवान) गरज रहे हैं। वे अनेकों अखाड़ों में बहुत से प्रकार से भिड़ते और एक-दूसरे को ललकारते हैं।
करि जतन भट कोटिन्ह बिकट तन नगर चहुं दिसि रच्छहीं।
कहुं महिष मानुष धेनु खर अज खल निसाचर भच्छहीं।।
एहि लागि तुलसीदास इन्ह की कथा कछु एक है कही।
रघुबीर सर तीरथ सरीरन्हि त्यागि गति पैहहिं सही।।
अर्थ-भयंकर शरीर वाले करोंड़ों योद्धा यत्न करके (बड़ी सावधानी से) नगर की चारों दिशाओं अर्थात् सब ओर से रखवाली करते हैं। कहीं दुष्ट राक्षस भैंसों, मनुष्यों, गायों, गदहों और बकरों को खा रहे हैं। तुलसीदास ने इनकी कथा इसीलिये कुछ थोड़ी-सी कही है कि ये निश्चय ही श्रीरामचंद्र जी के बाणरूपी तीर्थ में शरीरों को त्याग कर परमगति पावेंगे।
दोहा-
पुर रखवारे देखि बहु कपि मन कीन्ह बिचार।
अति लघु रूप धरौं निसि नगर करौं पइसार।।3।।
अर्थ-नगर के बहुसंख्यक रखवालों को देखकर हनुमान जी ने मन में विचार किया कि अत्यंत छोड़ा रूप धरूं और रात के समय नगर में प्रवेश करूं।
मसक समान रूप कपि धरी।
लंकहि चलेउ सुमिरि नरहरी।।
नाम लंकिनी एक निसिचरी।
सो कह चलेसि मोहि निंदरी।।
अर्थ-हनुमान जी मच्छड़ के समान छोटा-सा रूप धारण कर नररूप से लीला करने वाले भगवान् श्रीरामचंद्र जी का स्मरण करके लंका को चले। लंका के द्वार पर लंकिनी नाम की एक राक्षसी रहती थी। वह बोली-मेरा निरादर करके अर्थात् बिना मुझसे पूछे कहां चला जा रहा है?
जानेहि नहीं मरमु सठ मोरा।
मोर अहार जहां लगि चोरा।।
मुठिका एक महा कपि हनी।
रुधिर बमत धरनीं ढनमनी।।
अर्थ-हे मूर्ख! तूने मेरा भेद नहीं जाना? जहां तक जितने चोर हैं, वे सब मेरे आहार हैं। महाकपि हनुमान जी ने उसे एक घूंसा मारा, जिससे वह खून की उलटी करती हुई पृथ्वी पर लुढ़क पड़ी।
पुनि संभारि उठी सो लंका।
जोरि पानि कर बिनय संसका।।
जब रावनहि ब्रह्म बर दीन्हा।
चलत बिरंचि कहा मोहि चीन्हा।।
अर्थ-वह लंकिनी फिर अपने को संभालकर उठी और डर के मारे हाथ जोड़कर विनती करने लगी। वह बोली-रावण को जब ब्रह्मा जी ने वर दिया था, तब चलते समय उन्होंने मुझे राक्षासों के विनाश की यह पहचान बता दी थी कि-
बिकल होसि तैं कपि के मारे।
तब जानेसु निसिचर संघारे।।
तात मोर अति पुन्य बहूता।
देखेऊ नयन राम कर दूता।।
अर्थ-जब तू बंदर के मारने से व्याकुल हो जाय, तब तू राक्षसों का संहार हुआ जान लेना। हे तात! मेरे बड़े पुण्य हैं, जो मैं श्रीरामंचद्र जी के दूप को नेत्रों से देख पायी।
दोहा-
तात स्वर्ग अपबर्ग सुख धरिअ तुला एक अंग।
तूल न ताहि सकल मिलि जो सुख लव सतसंग।।4।।
अर्थ-हे तात! स्वर्ग और मोक्ष के सब सुखों की तराजू के एक पलड़े में रखा जाय, तो भी वे सब मिलकर दूसरे पलड़े पर रखे हुए उस सुख के बराबर नहीं हो सकते, जो क्षण मात्र के सत्संग से होता है।
प्रबिसि नगर कीजे सब काजा।
हृदयँ राखि कोसलपुर राजा।।
गरल सुधा रिपु करहिं मिताई।
गोपद सिंधु अनल सितलाई।।
अर्थ-अयोध्यापुरी के राजा श्रीरघुनाथ जी को हृदय में रखे हुए नगर में प्रवेश करके सब काम कीजिए। उसके लिये विष अमृत हो जाता है, शत्रु मित्रता करने लगते हैं, समुद्र गाय के खुर के बराबर हो जाता है, अग्नि में शीतलता आ जाती है।
गरुड़ सुमेरु रेनु सम ताही।
राम कृपा करि चितवा जाही।।
अति लघु रूप धरेउ हनुमाना।
पैठा नगर सुमिरि भगवाना।।
अर्थ-और हे गरुड़जी! सुमेरु पर्वत उसके लिये रज के समान हो जाता है, जिसे श्रीरामचंद्र जी ने एक बार कृपा करके देख लिया। तब हनुमान जी ने बहुत ही छोटा रूप धारण किया और भगवान का स्मरण करके नगर में प्रवेश किया।
मंदिर मंदिर प्रति कर सोधा।
देखे जहँ जहँ अगनित जोधा।।
गयउ दसानन मंदिर माहीं।
अति बिचित्र कहि जात सो नाहीं।।
अर्थ-उन्होंने एक-एक करके प्रत्येक महल की खोज की। जहां-जहां असंख्य योद्धा देखे। फिर वे रावण के महल में गये। वह अत्यंत विचित्र था, जिसका वर्णन नहीं हो सकता।
सयन किएँ देखा कपि तेही।
मंदिर महुँ न दीखि बैदेही।।
भवन एक पुनि दीख सुहावा।
हरि मंदिर तहँ भिन्न बनावा।।
अर्थ-हनुमानजी ने रावण को शयन किये देखा; परंतु महल में जानकी जी नहीं दिखायी दीं। फिर एक सुंदर महल दिखायी दिया। वहां उसमें भगवान का अलग मंदिर बना हुआ था।
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